SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'अव्रती और त्यागपरायण हो!' बड़ी उल्टी बात, बड़ा कंट्राडिक्यान, बड़ा विरोधाभास है। कहते हैं कि तू व्रत तो मत ले, लेकिन तेरा बोध ही तेरे जीवन में त्याग बन जाए, बस। त्याग को लाना न पड़े, बोध के पीछे छाया की तरह आए। एवं ज्ञात्वेह निवेंदादभव त्यागपरोउव्रती। इसे याद रखना। यही मेरे संन्यास का सूत्र भी है। अव्रती त्यागपर: भव। त्यागी बनो-त्याग की कसम खा कर नहीं। त्यागी बनो-त्यागी बनना चाहिए, ऐसे निर्णय और आग्रह से नहीं। त्यागी बनो-इसलिए नहीं कि त्यागी को सम्मान, समादर, प्रतिष्ठा मिलती है। त्यागी बनो-अव्रत, बिना किसी लोभ के, बिना किसी नियम के, बिना किसी आग्रह के अनाग्रह- भाव से। त्यागी बनो-बोध से। कचरा, कचरा दिखाई पड़े तो छूट जाएगा। कचरे को छोड़ने की कसम नहीं लेनी है। कचरा, कचरा दिखाई पड़े, इसकी चेष्टा करनी है। ज्ञान त्याग है। वे ही छोड़ पाते हैं जो जागते हैं और देखते हैं। 'हे प्रिय, लोकव्यवहार, उत्पत्ति और विनाश को देख कर किसी भाग्यशाली की ही जीने की कामना, भोगने की वासना और ज्ञान की इच्छा शांत हुई है।' किसी भाग्यशाली की ही! लोकव्यवहार को देख कर-ठीक से देख कर! जीवन में जो चल रहा है चारों तरफ, उसका ठीक से अवलोकन करो। शास्त्र में मत जाओ खोजने। शास्त्र में नियम मिलेंगे और शास्त्र से व्रत आएगा। खोजो जीवन में वहां से बोध मिलेगा और बोध का कोई व्रत नहीं है। बोध पर्याप्त है। उसे व्रत के सहारे की जरूरत नहीं है। व्रत तो अंधे के हाथ की लकड़ी है; और बोध, आंख वाले आदमी की आंख है। आंख वाले आदमी को लकड़ी नहीं चाहिए। व्रत तो बैसाखी है लूले लंगड़े की। जिसको बोध नहीं है, उसके लिए व्रत चाहिए; वह बैसाखी के सहारे चलता है। लेकिन जिसके अंग और देह स्वस्थ हैं, उसके लिए बैसाखी की कोई जरूरत नहीं होती। जिसके अंग स्वस्थ हैं, वह तो अपने पैर से चलता है। व्रत दूसरे से उधार मिलते हैं-बोध अपना कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्। जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गता।। हे प्रिय, लोकव्यवहार को ठीक से अवलोकन करके-लोकचेष्टा अवलोकनात्-ठीक से जाग कर, जीवन में जो हो रहा है, उसे देखो। कोई पैदा हो रहा, कोई मर रहा-जोड़ो! इस हिसाब को जोड़ो कि जो पैदा होता, मरता। किसी के पास दीनता है, दरिद्रता है-वह दुखी है। धनी को देखो, धन है, सब कुछ है-और दुखी है। यहां ऐसा लगता है, सुखी होने का किसी को कोई उपाय नहीं। विफल रो रहा है, सफल रो रहा है। कुरूप रो रहा है, सुंदर रो रहा है। बीमार रो रहा है, स्वस्थ रो रहा है। यहां जैसे रुदन ही, हाहाकार मचा है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy