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________________ सुबह होती है तो क्या करते हों-सुबह को देखते। रात हो जाती तो क्या करते, रात को देखते। जवान होते तो जवानी देखते, बूढ़े हो जाते तो बुढ़ापे को देखते। मौसम बदलते, ऋतुएं बदलती-ऐसा ही तुम्हारा चित्त भी डांवाडोल होता रहता है, तुम देखते रहो। अगर तुमने देखने के सूत्र को पकड़ लिया, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे सब ऋतुएं दूर हो गईं; न काम बचा, न ब्रह्मचर्य बचा; न भोग बचा न त्याग बचा। दोनों गए। एक दिन अंतत: आदमी पाता है. अकेला बैठा हूं घर में कोई भी नहीं बचा। एकांत, बिलकुल अकेला, शुद्ध चैतन्य, चिन्मात्र! अहो चिन्मात्र! आश्चर्य कि मैं सिर्फ चैतन्य मात्र हूं और सब व्यर्थ की बकवास थी-पकड़ो, छोड़ो, यह करो, वह करो। कर्ता भी भूल थी, भोक्ता भी भूल थी। संस्कृत में जो शब्द है वह बड़ा बहुमूल्य है। मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुडच मा। हिंदी में अनुवाद सदा किया जाता रहा है. 'इस प्रकार विचार कर, न इच्छा कर, न ग्रहण कर, और न त्याग कर। ' लेकिन यह 'विचार करना नहीं है। क्योंकि विचार करने को तो मना किया है अष्टावक्र ने शुरू में ही। तो जिन्होंने भी अनुवाद किए हैं अष्टावक्र के, वे ठीक नहीं मालूम पड़ते हैं। क्योंकि तीन सूत्रों के पहले ही वे कहते हैं. 'जब मन कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ त्यागता, कुछ ग्रहण करता, जब वह सुखी-दुखी होता, तब बंध है।' किंचित शोचति तदा बंध:! तो विचार तो नहीं हो सकता 'मत्वेति' का अर्थ। मत्वेति बनता है मति से। मति एक बड़ी पारिभाषिक धारणा है। तुमने सुनी कहावत कि जब परमात्मा किसी को मिटाना चाहता तो उसकी मति भ्रष्ट कर देता। मति क्या है? तुम्हारे सोचने पर निर्भर नहीं है मति। तुम तो सोच-सोच कर जो भी करोगे वह मन का ही खेल होगा। मति है मन के पार जो समझ है, उसका नाम मति है। मन के पार जो समझ है, सोच-विचार से ऊपर जो समझ है, शुद्ध समझ, जिसको अंग्रेजी में अंडरस्टेंडिंग कहें, थिंकिंग नहीं, विचारणा नहीं, अंडरस्टेंडिंग, प्रज्ञा जिसको बुद्ध ने कहा है-मति। मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुडच मा। जो ऐसी मति में थिर हो गया है-मैं अगर अनुवाद करूं तो ऐसा करूंगा-जो ऐसी मति को उपलब्ध हो गया है, मत्वेति, कि अब न तो इच्छा उठती, न ग्रहण उठता, न त्याग का भाव उठता। जो ऐसी मति को उपलब्ध हो गया है, जहां मन नहीं उठता। जिसको झेन फकीर नो -माइंड कहते हैं, वही मति। यह तुम्हारे सोच-विचार का सवाल नहीं है। जब तुम्हारा सब सोच-विचार खो जाएगा, तब तुम उस घड़ी में आओगे, जिसको मति कहें। मति तुम्हारी और मेरी नहीं होती। मति तो एक ही है। मेरे विचार मेरे, तुम्हारे विचार तुम्हारे हैं। जब तुम्हारे विचार खो गए, मेरे विचार खो गए, मैं निर्विचार हुआ तुम निर्विचार हुए तो मुझमें तुममें कोई भेद न रहा। और जो उस घड़ी में घटेगा वह मति। वह मति न तो तुम्हारी न मेरी। विचार तो सदा मेरे-तेरे होते हैं। और अष्टावक्र तो कहते हैं, जब मैऐ हूं तब बंध है। और विचार के साथ
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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