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________________ छिपे बैठे हैं। तुम राम-नाम चदरियों के धोखे में मत आना, तुम तो आदमी की सीधी आंख में देखना। हरेक चेहरा खुद एक खुली किताब है यहां, दिलों का हाल किताबों में ढूंढता क्यों है? सौ में निन्यानबे आदमी चार्वाकवादी हैं। चार्वाक का पुराना नाम है लोकायत। वह नाम बड़ा प्यारा है। लोकायत का अर्थ होता है : लोग को जो प्रिय है। सबको जो प्रिय है। कहें लोग कुछ भी, ऊपर से कुछ भी गुनगुनाए राम-राम जपें; ऊपर से मोक्ष, परमात्मा, धर्म की बातें करें-लेकिन भीतर से अगर पूछो तो हर आदमी का दिल चार्वाक है। 'चार्वाक' शब्द भी बहुत अच्छा है। वह आया है चारु वाक से-जिसके वचन मधुर लगें। सभी को मधुर लगते हैं कहे कोई नहीं; हिम्मतवर कहेंगे सिर्फ। बृहस्पति हिम्मतवर रहे होंगे, इसलिए भारत में उनको आचार्य का पद दिया गया, 'आचार्य बृहस्पति' कहा है। चार्वाक दर्शन के जन्मदाता को भी आचार्य कहा है-उसी तरह जिस तरह शंकर को आचार्य कहा है, रामानुज को आचार्य कहा है। इस देश में हिम्मत तो है। यह तो कहता है कि बात तो कही ही है बृहस्पति ने, बड़े मूल्य की कही है। और अधिक लोग तो बृहस्पति के ही अनुयायी हैं। हालाकि बृहस्पति के लिए कोई समर्पित मंदिर नहीं है कहीं। और न तुम किसी के घर में चार्वाक की किताब पाओगे, किताब बची नहीं है किसी ने बचाई भी नहीं। कौन बचाएगा? किताबें तुम पाओगे : गीता, कुरान, बाइबिल, वेद, धम्मपद। मगर इनसे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। किताबों के कवर धम्मपद के हैं, भीतर तो बृहस्पति के वचन लिखे हैं। हृदय खोजो आदमी का, तो सौ में निन्यानबे आदमी नास्तिक हैं और सौ में निन्यानबे आदमी भोगवादी हैं। वह भी समझ में आता है, स्वाभाविक लगता है। फिर थोड़े -से लोग हैं जो त्यागी हैं। वे भी समझ में आते हैं। भोग के तर्क से उनके तर्क में कुछ विरोध नहीं। वे कहते हैं, जीवन में कुछ नहीं है, इसलिए हम छोड़ते हैं। वह भी बात समझ में आती है : 'जहां कुछ नहीं है, उससे भागो! किसी और की तलाश करो, जहां कुछ हो!' लेकिन अष्टावक्र को कैसे समझोगे? मझे कैसे समझोगे? 'न इच्छा कर, न ग्रहण कर और न त्याग कर।' तो जब मुझसे कोई पूछता है, 'हम अपनी कामवासना का क्या करें? आप कहते हैं दबाओ मत। आप कहते हैं भोगो मत। करें क्या फिर?' ये दो बातें साफ समझ में आती हैं। दवैत सदा समझ में आता, अदवैत समझ में नहीं आता। मैं उनसे कहता हूं जागो न भोगो न भागो-जागो। न दबाओ न दमन करो, न भोग में अपने को नष्ट करो-साक्षी बनो। देखो। जो होता हो उसे देखो। वासना पकड़े तो पकड़ने दो, तुम क्या करोगे? तुम दूर भीतर बैठे देखते रहो कि वासना पकड़ती है। तुमने उठाई भी नहीं। जिसने उठाई वह जाने। तुम अपने को क्यों बेचैन किए लेते हो? क्रोध उठता है, क्रोध को भी देखो। लोभ उठता है, लोभ को भी देखो। तुम सिर्फ देखने पर ध्यान रखो कि देखूगा। जो भी उठेगा, देखूगा।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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