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________________ यह बात भी क्या उठानी ? और स्त्री में मल-मूत्र छिपा है तो तुममें क्या कोई सोना-चांदी छिपा है। तुमने कभी सोचा? जिन महात्माओं ने तुम्हारे शास्त्र लिखे, उसमें वे लिख गए 'स्त्री में मल-मूत्र, मांस-मज्जा, बस यही थूक - खखार - यही सब छिपा पड़ा है। 'खुद इन महात्मा क्या छिपा था? इस संबंध में भी तो कुछ सूचना दे जाते। उस संबंध में बिलकुल चुप हैं। क्योंकि पुरुषों ने शास्त्र लिखे हैं, इसलिए स्त्रियों में तो हड्डी, मांस, मज्जा है और पुरुषों में सोना-चांदी है ! स्त्रियों ने शास्त्र लिखे होते तो शायद बात कुछ और होती, तो वे पुरुषों के बाबत लिखतीं। लेकिन यह लिखने की जरूरत भी क्या है? क्या इस बात में साफ प्रमाण नहीं है कि कहीं न कहीं अभी भी स्त्री में रस रहा होगा। उसी रस को झुठलाने को यह कह रहा है कि रखा क्या है! यह अपने मन को समझा रहा है। मन तो कहता है कि चलो...। यह मन को कह रहा है : अरे पागल, कुछ भी नहीं रखा है! वासना तो उठी है, यह वासना की लगाम खींचने की कोशिश कर रहा है। लाख तुम ऐसी कोशिशें करो, तुम जीतोगे नहीं। यह सब सोच-विचार ही है। मुझे अपनी पस्ती की शरम है तेरी रिफअतों का खयाल है मगर अपने दिल को मैं क्या करूं? इसे फिर भी शौक - ए -विसाल है। तुम लाख समझो, शर्मिंदा होओ, अपराधी अनुभव करो गलती हो रही है, पाप हो रहा है-फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ता । मगर अपने दिल को मैं क्या करूं? इसे फिर भी शौक - ए -विसाल है। वह दिल तो भोग मांगता ही जाता है। उस दिल को तुम रोको, बंधन डालो, जंजीरें पहनाओइससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम निकल रहे राह से तुम भोगी हो तो भोग की आकांक्षा उठी है; त्यागी निकलता, उसको भी भोग की आकांक्षा निकलती है, वह त्याग की बातों से उस आकांक्षा को दबाता । मगर दोनों दृष्टि में उलझ गए; जो दिखाई पड़ा उसमें उलझ गए। तुम उस आदमी की कल्पना करो जो वहीं रास्ते से निकलता है और जो दिखाई पड़ता है, वह न तो इस तरफ न उस तरफ, किसी तरह की उलझन पैदा नहीं करता। स्त्री निकली, निकली - स्त्री स्त्री है! न तो शोरगुल मचाने की जरूरत है कि स्वर्ग निकल गया पास से, न शोरगुल मचाने की जरूरत है कि यह कापोरशन की मैला - गाड़ी निकल गई पास से । स्त्री, स्त्री है- निकल गई, निकल गई ! तुम ऐसे ही चले गए, जैसे कुछ भी न निकला। इस अवस्था का नाम है : दृष्टि के पार हो जाना । तुमने कान से कुछ सुना और उसमें रस पड़ गया। एक गीत सुन लिया फिर-फिर गीत को सुनने की आकांक्षा होने लगी तो दृष्टि में उलझ गए। तुमने कुछ छुआ, प्रीतिकर लगा, फिर-फिर छूना चाहा तो फिर दृष्टि में उलझ गए। खयाल रखना, तुमने जा कर किसी साधु की वाणी सुनी, किसी संत के वचन सुने, सुनने के
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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