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________________ लेकिन अगर कहीं भी पाने की, कोई आकांक्षा अभी भी सरक रही हो मन के किसी कोने में, फिर वह पाना कुछ भी क्यों न हो, तो संसारी संसारी है। सिर के बल खड़ा हो जाए, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। भूखा मरे, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। नंगा खड़ा हो जाए, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। संसार और मोक्ष अष्टावक्र की परिभाषा में तुम्हारे चित्त की दशाएं हैं-चाह और अचाह की। 'जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, न सुखी होता, न दुखी होता-तब मुक्ति है।' तदा मुक्तिः । जब मन एकरस होता, बस होता, कोई क्रिया नहीं होती, कोई हलन-चलन नहीं होता, कोई कंपन नहीं होता, स्तब्ध ज्योति ठहरी होती है अकंप, न कहीं जाना, न होने की कोई वांछा, जैसा है है-ऐसा सर्वस्वीकार, ऐसी तथाता; जैसे दर्पण कोरा; जैसे कोरा कागज, जिस पर कुछ लिखा नहीं है, ऐसा जब मन कोरा होता-उस कोरे मन का नाम ही ध्यान है। और उस कोरे मन में जब कोई संभावना नहीं रह जाती...| क्योंकि कुछ कोरे कागज होते हैं जिनमें अदृश्य लिखावट होती है। कोरा कागज हो सकता है, लेकिन ऐसी रासायनिक प्रक्रियाएं होती हैं कि तुम रासायनिक द्रव्यों से लिख सकते हो, दिखाई न पड़े, थोड़ी आंच बताओ तो दिखाई पड़ने लगे। जब कोरा कागज ऐसा होता है कि उसमें अदृश्य लिखाई भी नहीं होती, कितनी ही आंच दिखाओ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा, कुछ भी पैदा नहीं होगा-तब जानना आ गए अपने घर, मंजिल मिली। तदा मुक्तिः । 'जब मन किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा हुआ है तब बंध है और मन जब सब दृष्टियों से अनासक्त है तब मोक्ष है।' सीधी-सीधी बातें हैं, बड़े सीधे सूत्र हैं और सत्य के अत्यंत निकट हैं। तदा बंधो यदा चित्तं सक्त कास्वपि दृष्टिषु । तदा मोक्षो यदा चितंसक्तं सर्वदृष्टिषु ।। 'जब मन किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है......।' किसी दृष्टि में लगा है-आंख से जो दिखाई पड़ता है उसमें लगा है, कान से जो सुनाई पड़ता है उसमें लगा है, हाथ से जो स्पर्श में आता है उसमें लगा है-तो दृष्टि में लगा है। समझो इस बात को। तुम राह से गुजरे देखा एक सुंदर स्त्री को जाते हुए मन उसके पीछे चलने लगा। तुम न भी जाओ उसके पीछे, तुम मुंह मोड़ लो, तुम आंख बंद कर लो, तुम उस तरफ देखो ही नहीं लेकिन मन चलने लगा। तुम्हारे चलने से कुछ मन के चलने का संबंध नहीं। तुम्हारा शरीर चले न चले, मन चलने लगा। फिर वहीं से एक त्यागी निकल रहा है। तुम उस स्त्री के सौंदर्य के भोग के लिए आतुर होने लगे, मन में कल्पना उठने लगी। फिर एक त्यागी निकलता है वहीं से, उसने भी सुंदर स्त्री देखी। सुंदर स्त्री देख कर ही वह शास्त्रों के वचन अपने भीतर दोहराने लगा कि 'स्त्री में है क्या? हड्डी, मांस, मज्जा, मल-मूत्र है क्या स्त्री में? कुछ भी तो नहीं है। ' वह समझाने लगा अपने को। यह त्यागी है, लेकिन इस त्याग के पीछे भी कहीं गहरे में राग छिपा है.; नहीं तो
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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