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________________ विधि, भाग्य, स्वभाव - इन सबकी कोई व्यवस्था नहीं है। वहां तो तुम्हारा संकल्प और श्रम! इसलिए स्वभावत: उन्होंने जवानी में संन्यास को डालने की चेष्टा की, क्योंकि जवान आदमी श्रम करेगा - तो संन्यासी हो सकेगा, संकल्प से जूझेगा, संघर्ष करेगा, तो संन्यासी हो सकेगा। इसलिए तुम जैन संन्यासी को जितना अहंकारी पाओगे उतना हिंदू संन्यासी को न पाओगे। और मुसलमान संन्यासी को तो तुम बिलकुल ही अहंकारी न पाओगे। क्योंकि उसने कुछ छोड़ा ही नहीं है, सिर्फ समझा है; कर्ता का कोई भाव ही नहीं है। जैन संन्यासी बहुत अहंकारी होगा, क्योंकि उसने बहुत कुछ किया है। भरी जवानी में या बचपन में सब छोड़ दिया है-धन, द्वार, घर, वासना, महत्वाकांक्षा ! उठ तो रही हैं भीतर तरंगें, वह उन्हें दबाए बैठा है। तो वह जितना उनको दबाता है उतना ही वह चाहता है सम्मान मिले, क्योंकि वह काम तो बड़ा मेहनत का कर रहा है, कठिन काम कर रहा है। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दफ्तर में नौकरी की दरखास्त दी थी। और जब वह इंटरव्यू देने गया तो उस दफ्तर के मालिक ने पूछा कि तुम्हें टाइपिंग आती है, तुमने टाइपिस्ट के लिए दरखास्त दी? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, नहीं, आती तो नहीं। तो उसने कहा, हद हो गई। जब टाइपिंग नहीं आती है तो दरखास्त क्यों दी? और फिर न केवल इतना, हद हो गई, तुमने इसमें तनख्वाह दुगनी मांगी है! मुल्ला ने कहा, इसलिए तो मांगी दुगनी, कि उतर टाइपिंग आती तो आधे से ही कर देते काम | आती तो है नहीं, मेहनत बहुत पड़ेगी। मेहनत का तो सोचो! तो जवानी में जो संन्यासी हो जाए, तो वह आदमी बहुत अहंकार की प्रतिष्ठा मांगेगा। वह कहता है, जरा देखो भी तो, जवान हूं अभी और संन्यास लिया हूं जीवन की धार के विपरीत बहा हूं। गंगोत्री की तरफ तैर रहा हूं, जरा देखो तो ! हिंदू का संन्यास तो है गंगा के साथ, गंगासागर की तरफ तैरना । और जैन का संन्यास है गंगोत्री की तरफ तैरना, धार के उल्टे । तो वह आग्रह मांगता है कि कुछ मुझे प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, नहीं तो किसलिए मेहनत करूं? तो बजाओ तालियां, शोभा - यात्रा निकालो, चारों तरफ बैड-बाजे करो! जैन मुनि आएं गांव में, तो बड़ा शोरगुल मचाते हैं। हिंदू संन्यासी आता है, चला जाता है, ऐसा कुछ खास पता नहीं चलता। मुसलमान फकीर का तो बिलकुल पता नहीं चलता। क्योंकि उसने तो कुछ छोड़ा नहीं है बाहर से। हो सकता है उसकी पत्नी हो, दूकान हो। सूफी तो कुछ भी नहीं छोड़ते। सूफियों को तो पहचानना तक मुश्किल है। जब एक गुरु किसी दूसरे सूफी के पास अपने शिष्य को सीखने भेजता है, तो ही पता चलता है कि वह दूसरा गुरु है, नहीं तो पता ही नहीं चल सकता था। क्योंकि हो सकता है, दरी बुनने का काम कर रहा हो, जिंदगी भर से दरी बना कर बेच रहा हो। या जूता बना रहा हो और जिंदगी भर जूते बना रहा हो। गुरजिएफ जब सूफी फकीरों की खोज में पूरब आया तो बड़ी मुश्किल में पड़ा। कैसे उनका पता
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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