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________________ एक आश्चर्य की बात देखी ! मुट्ठी बांधो तो आकाश बाहर रह जाता है; मुट्ठी खोल दो तो आकाश मुट्ठी में होता है। खुली मुट्ठी में तो होता है बंधी मुट्ठी में खो जाता है। तो मौन में तो सत्य होता है, शब्द में खो जाता है। शब्द तो बंधी मुट्ठी है; मौन खुला हाथ है। लेकिन फिर भी बुद्धपुरुष कहने की चेष्टा करते है-करुणावशांत और शुभ है कि चेष्टा जारी है। सत्य भला न कहा जा सके, लेकिन सत्य को कहने की जो चेष्टा है वह चलती रहनी चाहिए; क्योंकि उसी चेष्टा में बहुत-से सोये व्यक्ति जाग हैं। सुन कर सत्य मिलता भी नहीं, लेकिन सुन-सुन कर प्यास तो जग जाती है; सत्य की खोज की आकांक्षा तो प्रज्वलित हो जाती है। मैं तुमसे कह रहा हूं जो कुछ जान कर कह रहा हूं कि तुम तक नहीं पहुंचेगा। लेकिन फिर भी जो मैं कहूंगा वह भला न पहुंचे तुम्हारे जीवन के भीतर छिपी हुई अग्नि में घी का काम करेगा अग्नि प्रज्वलित होगी। सत्य तुम्हें मिले न मिले, लेकिन तुम्हारे भीतर सोई हुई अग्नि को ईंधन मिलेगा। इसी आशा में सारे शास्त्रों का जन्म हुआ है। लेकिन अगर तुम सत्य को पकड़ने की चेष्टा में शब्द में उलझ जाओ तो चूक गये। जैसे कि कोई गीत तो कंठस्थ कर ले और गीत के भीतर छिपा हुआ अर्थ भूल जाए। तोतो को देखा ! याद कर लेते हैं। राम-राम रटने लगते हैं। भजन भी दोहरा देते हैं। तुम शब्द सीख ले सकते हो। सुंदर शब्द उपलब्ध हैं। और तुम्हें ऐसी भ्रांति भी हो सकती है कि जब शब्द आ गया तो सत्य भी आ गया होगा। शब्द तो केवल खाली मंजूषा है। सत्य तो आता नहीं, इसलिए शब्द को कभी भूल कर सत्य मत समझ लेना और शास्त्र को सिर पर मत ढोना । अष्टावक्र की यह महागीता है। इससे शुद्धतम वक्तव्य सत्य का कभी नहीं दिया गया और कभी दिया भी नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हें याद दिला दूं इन शब्दों में मत उलझ जाना। ये शब्द खाली हैं। ये बड़े प्यारे हैं - इसलिए नहीं कि इनमें सत्य है; ये बड़े प्यारे हैं, क्योंकि जिस आदमी से निकले हैं उसके भीतर सत्य रहा होगा, ये बड़े प्यारे हैं, क्योंकि जिस हृदय से उमगे हैं, जहां से उठे हैं, वहां सत्य का आवास रहा होगा। सदगुरु के पास या सदवचनों के सान्निध्य में कुछ ऐसी घटना घटती है, जैसे सुबह कुहासा घिरा हो और तुम घूमने गये हो, तो एकदम भीग नहीं जाते; कोई वर्षा तो हो नहीं रही है कि तुम भीग जाओ; लेकिन अगर घूमते ही रहे, घूमते ही रहे, तो वस्त्र धीरे- धीरे आर्द्र हो जाते हैं। वर्षा हो भी नहीं रही कि तुम भीग जाओ, कि तर-बतर हो जाओ; लेकिन कुहासे में अगर घूमने गये हो तो घर लौट कर पाओगे कि वस्त्र थोड़े गीले हो गये। सत्संग में ऐसा ही गीलापन आता, आर्द्रता आती; वर्षा नहीं हो जाती। लेकिन अगर तुम शास्त्र के शुद्ध वचनों को शांति से सुनते रहे और शब्दों में न उलझे, तो कुहासे की तरह शब्दों के आसपास लिपटी हुई जो गंध आती है वह तुम्हें सुगंधित कर जायेगी, और तुम्हें प्रज्वलित कर जायेगी; तुम्हारे भीतर की मशाल को ईंधन बन जायेगी। कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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