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________________ है और न लय है। 'मैं समुद्र के समान हूं। यह संसार तरंगों के सदृश्य है। ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, न इसका ग्रहण है और न इसका लय है।' महोदधिरिवाह स प्रपंचो वीचिसन्निभि। ज्ञान तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।। जनक कहने लगे, मुझे गुरुदेव उलझाओ मत। तुम मुझे उलझा न सकोगे। मुझे तुमने जगा ही दिया। अब जाल न फेंको। अब तुम्हत्तारे प्रलोभन किसी भी काम के नहीं हैं। खूब ऊचे प्रलोभन तुम दे रहे हो कि ऐसा जान कर तू मुक्ति प्राप्त हो जा। जनक कहते हैं, मैं मुक्त हू। इति ज्ञान ऐसा ज्ञान है; अब और कहां ज्ञान बचा? मुक्त हो जाऊं तो फिर तुम वासना को जगाते हो। मोक्ष को खोजू तो फिर तुम आकांक्षा को जगाते हो। फिर पल्लवित करते होजो जल गया दग्ध हो गया मिट गया। यह बात किससे कर रहे हो? बंद कर लो यह प्रलोभन देना। अब तुम मुझे न फुसला सकोगे।' अष्टावक्र जैसा कुशल में छिपे हुए जाल को जनक को बेच नहीं पाता है। जनक अब ग्राहक ही न रहे। जनक निश्चित ही जागे हैं। महोदधि.. .जैसे समुद्र में महोदधि में उठती हैं तरंगें ऐसा ज्ञान है। मैं महोदधि हूं। मैं समुद्र हूं। यह संसार तरंगों के सदश्य है। यह संसार मुझसे दिखाई पड़ता हुआ भी अलग कहां? लहरें स से अलग कहां हैं? समुद्र में हैं, समुद्र की हैं। समुंद्र ही तो लहरात है, और कौन? यह संसार भी मैं हूं इस संसार का न होना भी मैं हूं, जब लहरे होती है तब भी समुद्र है। जब लहरे नहीं होती तब भी समुद्र है। इति ज्ञानं! अब किसको छोडूं? समुद्र लहरों को छोड़े? बात नासमझी की है। समुद्र लहरों में पकडे? -पकडने की कोई जरूरत ही नहीं है: लहरें समद की ही हैं। मक्ति कहां, मोक्ष कहां? कैसी मुक्ति, कैसा मोक्ष? ऐसा जान कर मैं मुक्त हो गया हूं। इति ज्ञानं! 'मैं सीपी के समान विश्व की कल्पना चांदी के सदृश्य है। ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, न इसका ग्रहण है, न लय है। अहं स शुक्तिसंकाशो रूप्यवविश्वकल्पना। इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः। 'मैं निश्चित सब भूतो में हूं और यह सब भूत मुझमें हैं। ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण है और न लय है।' ज्ञान पाना नहीं है। ज्ञान है। या तो है या नहीं है। पा कर कभी किसी ने पाया नहीं। पाने वाला पंडित बन जाता है; जागने वाला, ज्ञानी। जो होना चाहिए, वह हुआ ही हुआ है। जैसा होना चाहिए वैसा ही है। अन्यथा क्षण भर को न तो हुआ था न हो सकता है। इस दशा को जो उपलब्ध हो जाए वही संत है। कुछ लोग हैं जो संसार में पाने में लगे हैं : धन मिलना चाहिए पद मिलना चाहिए, प्रतिष्ठा...|
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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