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________________ की काली छाया घेर कर खड़ी है। फिर कोई दुख ही जरूरी नहीं है रोने के लिए; सुख भी! इतनी मृत्यु के घिराव में भी जीवन नष्ट नहीं होता-देखो तो इस अपूर्व चमत्कार को! इतने कांटे हैं, फिर भी फूल खिले चले जाते हैं। मौत रोज-रोज आती है, फिर भी बच्चे जन्मे जाते हैं। परमात्मा थकता नहीं। मौत जीत नहीं पाती। जीवन हारता नहीं, जीवन बढ़ता ही चला जाता है। आये मौत कितनी, जीवन फिर नई तरंगें ले कर उठ आता है। मौत आती रहती है और जीवन बढ़ता जाता है। इस अहोभाव को देखो, इस आनंद भाव को देखो! इस अपने होने को सोचो। यह होना इतना आश्चर्यजनक है -तुम देख पाते हो, सोच पाते हो, अनुभव कर पाते हो। तुम हो, इतना ही काफी है। यह भाव ही तुम्हें डोला जाएगा। तो स्वात में बैठो, शिथिल हो जाओ, धारणाएं छोड़ो। देखो आकाश के तारों को, कि बहती नदी की धार को, कि आकाश में उठे हुए वृक्षों को, कि घूमते- भटकते बादलों को । इस जीवन - प्रकृति के चमत्कार से घिर जाओ। और तुम पाओगे आंखों से आंसू बहने लगे। विधि की नहीं बात करूंगा, क्योंकि तुम पूछते हो 'कैसे?' कैसे में तो अड़चन हो जाएगी। कैसे ही से तो रुकावट पड़ गई है। फूट कर बह निकलने में बुद्धि बाधा नहीं दे रही है। तुम बुद्धि को पकड़े हो इसलिए बाधा है। इसे भी खयाल में ले लेना। लोग सोचते हैं, बुद्धि बाधा दे रही है। बुद्धि बाधा नहीं दे रही । चैतन्य महाप्रभु के पास कुछ कम बुद्धि न थी। लेकिन फर्क इतना ही है कि उन्होंने बुद्धि को पकड़ा नहीं। बुद्धि अपनी जगह है, हृदय उसे डुबाता हुआ सरोबोर करता हुआ बहता रहता है। बुद्धि बाधा नहीं डालती। सच तो यह है, जहां चट्टानें होती हैं। वहां नदी में संगीत आ जाता है। तुमने देखा, झरना जब चट्टानों से बह कर निकलता है तो झरने में संगीत आ जाता है ! चट्टानें हों तो संगीत खो जाता है। झरना कुछ रिक्त हो जाता है बिना चट्टानों के झरने में शोर नहीं रह जाता, स्वर नहीं रह जाता। झरना नीरव हो जाता है। झरने की वाणी खो जाती है। तो मैं तो तुमसे कहता हूं बुद्धि की फिक्र ही मत करो। बुद्धि को रहने दो पत्थर की तरह, चट्टानों की तरह; बहो बुद्धि के ऊपर से, बहो बुद्धि को घेर कर और तुम पाओगे कि तुम्हारे हृदय के बहते झरने पर जब बुद्धि की चट्टानों की टक्कर होती है तो उठेगा एक संगीत, उठेगा एक निनाद, एक मरमर ! वही काव्य है। वही असली कविता है। एक तो ऐसी कविता है जो भाव उठता है और उसको तुम चेष्टा करके बुद्धि के शब्दों में ढालते हो-वही तुम्हारी अड़चन है अभी । एक और भी कविता है, जो बहती अनायास, बुद्धि की चट्टानों से टकराती। उस टकराहट से जो रव पैदा होता है, जो लय पैदा होती है, वह जो गुनगुनाहट पैदा हो जाती है-वह एक कविता है। उस कविता में अर्थ कम होगा, लय ज्यादा होगी। उस कविता में व्याकरण कम होगा, संगीत ज्यादा होगा। उस कविता को शायद बुद्धि के ढांचे में समझा ही न जा सके, लेकिन फिर भी हृदय उससे आंदोलित होगा ।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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