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________________ पहला प्रश्नः ध्यान और साक्षित्व में क्या संबंध है? उनसे चित्तवृत्तियां और अहंकार किस प्रकार विसर्जित होता है? पूर्ण निरहंकार को उपलब्ध हुए बिना क्या समर्पण संभव है ? गैरिक वस्त्र और माला, ध्यान और साक्षीसाधना में कहां तक सहयोगी हैं? और कृपया यह भी समझाएं कि साक्षित्व, जागरूकता और सम्यक स्मृति में क्या अंतर है? T | नुष्य के जीवन को हम चार हिस्सों में | बांट सकते हैं। सबसे पहली परिधि | तो कर्म की है। करने का जगत है सबसे बाहर। थोड़े भीतर चलें तो फिर विचार का जगत है। और थोड़े भीतर चलें तो फिर भाव का जगत है, भक्ति का, प्रेम का। और थोड़े भीतर चलें, केंद्र पर पहुंचे, तो साक्षी का। साक्षी हमारा स्वभाव है, क्योंकि उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं-कभी कोई नहीं गया; कभी कोई जा भी नहीं सकता। साक्षी का साक्षी होना असंभव है। साक्षी तो बस साक्षी है। उससे पीछे नहीं हटा जा सकता। वहां हमारी बुनियाद आ गयी। साक्षी की बुनियाद पर यह हमारा भवन है—भाव का, विचार का, कर्म का। इसलिए तीन योग हैं : कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग। वे तीनों ही ध्यान की पद्धतियां हैं। उन तीनों से ही साक्षी पर पहुंचने की चेष्टा होती है। कर्मयोग का अर्थ है : कर्म + ध्यान। सीधे कर्म से साक्षी पर जाने की जो चेष्टा है, वही कर्मयोग है। तो ध्यान पद्धति हुई, और साक्षी-भाव लक्ष्य हुआ। पूछा है, 'ध्यान और साक्षित्व में क्या संबंध है?' ध्यान मार्ग हुआ, साक्षित्व मंजिल हुई। ध्यान की परिपूर्णता है साक्षित्व। और साक्षी-भाव का प्रारंभ है ध्यान। ___ तो जो कर्म के ऊपर ध्यान को आरोपित करेगा, जो कर्म के जगत में ध्यान को जोड़ेगा-कर्म + ध्यान-वह कर्मयोगी है। फिर ज्ञानयोगी है, वह विचार के ऊपर ध्यान को आरोपित करता है। वह विचार के जगत में ध्यान को जोड़ता है। वह ध्यानपूर्वक विचार करने लगता है। एक नयी प्रक्रिया जोड़ देता है कि जो भी करेगा होशपूर्वक करेगा। जब 'विचार + ध्यान' की स्थिति बनती है तो फिर साक्षी की तरफ यात्रा शुरू हुई। ध्यान है दिशा-परिवर्तन। जिस चीज के साथ भी ध्यान जोड़ दोगे वही चीज साक्षी की तरफ ले जाने का वाहन बन जाएगी।
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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