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________________ फिर, तीसरा मार्ग है भक्तियोग - भाव के साथ ध्यान का जोड़; भाव के साथ ध्यान का गठबंधन; भाव के साथ ध्यान की भांवर! तो भाव के साथ ध्यानपूर्ण हो जाओ। इन तीन मार्गों से व्यक्ति साक्षी की तरफ आ सकता है। लेकिन लाने वाली विधि ध्यान है । मौलिक बात ध्यान है। जैसे कोई वैद्य तुम्हें औषधि दे और कहे, शहद में मिलाकर ले लेना; और तुम कहो, शहद मैं ता नहीं, मैं जैन-धर्म का पालन करता हूं - तो वह कहे, दूध में मिलाकर ले लेना; और तुम कहो, दूध मैंले नहीं सकता, क्योंकि दूध तो रक्त का ही हिस्सा है; मैं क्वेकर ईसाई हूं, मैं दूध नहीं पी सकता, दूध तो मांसाहार है। तो वैद्य कहे पानी में मिलाकर ले लेना। लेकिन औषधि एक ही है - मधु, दूध या जल, कोई फर्क नहीं पड़ता, वह तो सिर्फ औषधि को गटकने के उपाय हैं, गले से उतर जाये, औषधि अकेली न उतरेगी। ध्यान औषधि है। तीन तरह के लोग हैं जगत में। कुछ लोग हैं जो बिना कर्म के जी नहीं सकते; उनके सारे जीवन का प्रवाह कर्मठता का है । खाली बैठाओ, बैठ न सकेंगे, कुछ न कुछ करेंगे। ऊर्जा है, बहती हुई ऊर्जा है— कुछ हर्ज नहीं । तो सदगुरु कहते हैं कि फिर तुम कर्म के साथ ही ध्यान की औषधि को गटक लो। चलो यही सही । तुमसे कर्म छोड़ते नहीं बनता; ध्यान तो जोड़ सकते हो कर्म में। तुम कहते हो, 'कर्म छोड़कर तो मैं क्षण भर नहीं बैठ सकता। बैठ मैं सकता ही नहीं। बैठना मेरे बस में नहीं, मेरा स्वभाव नहीं ।' मनोवैज्ञानिक जिनको एक्स्ट्रोवर्ट कहते हैं— बहिर्मुखी - सदा संलग्न हैं, कुछ न कुछ काम चाहिए; जब तक थककर गिर न जायें, सो न जायें, तब तक कर्म को छोड़ना उन्हें संभव नहीं । कर्म उन्हें स्वाभाविक है। तो सदगुरु कहते हैं, ठीक है, कर्म पर ही सवारी कर लो, इसी का घोड़ा बना लो ! इसी में मिला लो औषधि को और गटक जाओ। असली सवाल औषधि का है। तुम ध्यानपूर्वक कर्म करने लगो । जो भी करो, मूर्च्छा में मत करो, होशपूर्वक करो । करते समय जागे रहो। फिर कुछ हैं, जो कहते हैं कर्म का तो हम पर कोई प्रभाव नहीं; लेकिन विचार की बड़ी तरंगें उठती हैं। विचारक हैं। कर्म में उन्हें कोई रस नहीं। बाहर में उन्हें कोई उत्सुकता नहीं; मगर भीतर बड़ी तरंगें उठती हैं, बड़ा कोलाहल है । और भीतर वह क्षण भर को निर्विचार नहीं हो पाते। वे कहते हैं कि हम बैठें शांत होकर तो और विचार आते हैं । इतने वैसे नहीं आते जितने शांत होकर बैठकर आते हैं। पूजा, प्रार्थना, ध्यान का नाम ही लेते हैं कि बस विचारों का बड़ा आक्रमण, सेनाओं पर सेनाएं चली आती हैं, डुबा लेती हैं, क्या करें? तो सदगुरु कहते हैं, तुम विचार में ही मिलाकर ध्यान को पी जाओ । विचार को रोको मत ; विचार आए तो उसे देखो। उसमें खोओ मत, थोड़े दूर खड़े रहो, थोड़े फासले पर। शांत भाव से देखते हुए विचार को ही धीरे-धीरे तुम साक्षी भाव को उपलब्ध हो जाओगे। विचार से ही ध्यान को जोड़ 1 फिर कुछ हैं, वे कहते हैं: न हमें विचार की कोई झंझट है, न हमें कर्म की कोई झंझट है; भाव का उद्रेक होता है, आंसू बहते हैं, हृदय गदगद हो आता है, डुबकी लग जाती हैं— प्रेम में, स्नेह में, 86 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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