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________________ जगाना और पहचानो कहना तो बेवकूफी है।' बिलकुल ठीक बात है। आत्मा तो जागी ही हुई रही है; उसको जगाने का कोई उपाय नहीं है। और हम उसको जगा भी नहीं रहे। मामला कुछ ऐसा है कि तुम बने हुए पड़े हो, जागे हुए पड़े हो और आंखें बंद किये। सोये को गाना तो बहुत आसान है; हिलाओ- डुलाओ, पानी छिड़को – जागेगा । जागा हुआ अगर कोई आदमी पड़ा हो, आंखें बंद करके, ढोंग करता हो सोने का - इसको कैसे जगाओ ? छिड़को पानी, कोई फर्क नहीं पड़ता । हिलाओ - डुलाओ, वह हिल-डुल कर फिर करवट ले कर सो जाता है। पुकारो नाम, सुन लेता है, बोलता नहीं। ऐसी तुम्हारी हालत है। जागे हुए को जगाना, कोई अर्थ नहीं रखता; लेकिन जागा हुआ सोने का बहाना कर रहा है। इसलिए जगाने की जरूरत है। सोये हुए को जगा नहीं रहे हैं, क्योंकि आत्मा सो नहीं सकती। जो सोया है वह शरीर है। जो शरीर है उसे जगाया नहीं जा सकता और जो आत्मा जागी हुई है, उसे जगाने का कोई अर्थ नहीं है। बिलकुल ठीक कहते हो । बड़े ज्ञान की बात कर रहे हो; मगर उधार होगी, क्योंकि खुद की समझ से आई होती तो पूछते ही नहीं । अष्टावक्र या मैं उसको जगा रहे हैं जो जागा हुआ है और भूल गया कि हम जागे हुए हैं; जो जागा हुआ है और सोने के बहाने में पड़ गया है, सोने का खेल खेल रहा है। इसलिए तो कठिनाई है जगाने में, बड़ी कठिनाई है। 'आप लोगों को भ्रम में तो नहीं डाल रहे हैं ?" तुम सोचते हो लोग भ्रम में हैं नहीं? अगर लोग भ्रम में नहीं हैं तो निश्चित ही मैं भ्रम में डाल रहा हूं। मगर, अगर लोग भ्रम में नहीं हैं तो भ्रम में डाले कैसे जा सकेंगे ? इतने बुद्धपुरुष भ्रम में डाले जा सकते हैं? और अगर लोग भ्रम में हैं तो मैं जो कर रहा हूं वह भ्रम के बाहर लाने की चेष्टा है। जो भी तुम हो, उससे उलटा मैं कर रहा हूं। अगर तुम सोचते हो तुम भ्रम में हो, तो यह चेष्टा है जगाने की। अगर तुम सोचते हो तुम जागे हुए हो तो यह चेष्टा तुम्हें भ्रम में डालने की। लेकिन अगर तुम जागे हुए हो तो कौन तुम्हें भ्रम में डाल देगा ? खयाल रखना, तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें भ्रम में कोई भी नहीं डाल सकता, और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई जगा भी नहीं सकता। जगाने की चेष्टा कोई कर सकता है; लेकिन जब तक तुम सहयोग न करोगे, तुम जागोगे नहीं। क्योंकि यह नींद थोड़े ही है कि कोई तोड़ दे; तुम बने हुए पड़े हो ! तुम्हारा सहयोग जरूरी है । सहयोग का अर्थ ही शिष्यत्व है । सहयोग का अर्थ ही है कि कोई जगाने वाले के पास तुम जाते हो, तुम कहते हो : मेरी पुरानी आदत हो गई है अपने को धोखा देने की, जरा मुझे साथ दें, जरा मुझे सहारा दें कि इस आदत के बाहर निकाल लें। एक युवती मेरे पास आई और उसने कहा कि उसे कुछ मादक द्रव्य लेने की आदत हो गई है; बाहर आना चाहती है। बड़ी आकांक्षा है बाहर निकल आने की। बड़ी आतुर है कि किस तरह बाहर निकल आये। लेकिन वह जो आदत पड़ गई है मादक द्रव्यों की वह इतनी गहरी हो गई है, वह शरीर की कोशिकाओं में पहुंच गई है। अगर न ले मादक द्रव्य तो ऐसी पीड़ा और बेचैनी सारे शरीर में होती है कि न तो सो सकती, न उठ सकती, न बैठ सकती, तो लेना ही पड़ता है। और लेती है तो पीड़ा 48 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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