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________________ आसन इंद्र का क्या हुआ, दिल्ली का हुआ ! इंद्र का कहो कि इंदिरा का कहो — एक ही बात है ! इसमें कुछ बहुत फर्क न हुआ। यह तो कोई आने लगा ! तो प्रतिस्पर्धा, घबड़ाहट, • बेचैनी ! बुद्ध ना-कुछ करके उपलब्ध हुए। जो बुद्ध के जीवन में घटा; वही अष्टावक्र के जीवन में घटा होगा । कोई कथा हमारे पास नहीं है; किसी ने लिखी नहीं है। लेकिन निश्चित घटा होगा। क्योंकि अष्टावक्र जो कह रहे हैं, वह इतना ही कह रहे हैं कि तुम दौड़ चुके खूब, अब रुको! दौड़ कर नहीं मिलता परमात्मा, रुक कर मिलता है। खोज चुके खूब, अब खोज छोड़ो। खोज कर नहीं मिलता सत्य; क्योंकि सत्य खोजी में छिपा है, खोजने वाले में छिपा है । कहां भागते फिरते हो ? कस्तूरी कुंडल बसै! लेकिन जब कस्तूरी का नाफा फूटता है तो मृग पागल हो जाता है, कस्तूरी मृग पागल हो जाता है। भागता है । इधर भागता, उधर भागता, खोजता है: 'कहां से आती है यह गंध ? कौन खींचे ले आता है इस सुवास को ? कहां से आती है ?' क्योंकि उसने जब भी गंध आती देखी तो कहीं बाहर से आती देखी। कभी फूल की गंध थी, कभी कोई और गंध थी; लेकिन सदा बाहर से आती थी। आज जब गंध भीतर से आ रही है, तब भी वह सोचता है बाहर से ही आती होगी । भागता है । और कस्तूरी उसके ही कुंडल में बसी है। कस्तूरी कुंडल बसै ! परमात्मा तुम्हारे भीतर बसा है। तुम जब तक बाहर खोजते रहोगे - योग में, भोग में – व्यर्थ ! साधारण योगी भोग के बाहर ले जाता है; अष्टावक्र योग और भोग दोनों के बाहर जा हैं — योगातीत, भोगातीत! इसलिए तुम पाओगे : सांसारिक का अहंकार होता है। तुमने योगी का अहंकार देखा या नहीं? सांसारिक का क्रोध होता है; तुमने दुर्वासाओं का क्रोध देखा या नहीं ? सांसारिक आदमी दंभ से अकड़ कर चलता है, पताकाएं ले कर चलता है; तुमने योगियों की पताकाएं, हाथी-घोड़े देखे या नहीं? साधारण आदमी घोषणा करता है : इतना धन है मेरे पास, इतना पद है मेरे पास! तुमने योगियों को देखा घोषणा करते या नहीं कि इतनी सिद्धि है, इतनी रिद्धि है! लेकिन ये सारी बातें वही की वही हैं; कोई फर्क नहीं हुआ । जब तक योग योगातीत न हो जाये, जब तक व्यक्ति 'मैं कर्ता हूं', इस भाव से समग्रतया मुक्त न हो जाये, तब तक कुछ भी नहीं हुआ। तब तक तुमने सिर्फ रंग बदले। तब तक तुम गिरगिट हो : जैसा देखा वैसा रंग बदल लिया। लेकिन तुम नहीं बदले, रंग ही बदला। 'सदा से खोजियों का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म-उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है।' यह बात एक अर्थ में सच है । अगर तुम बहुत दौड़ कर ही आना चाहते हो तो कोई क्या करे ? अगर तुम अपने कान को उलटे तरफ से पकड़ना चाहते हो, मजे से पकड़ो। निश्चित ही तुम जब उलटी तरफ से कान को पकड़ोगे तो तुमको लगेगा ः कान को पकड़ना बहुत दुःसाध्य घटना है। यह तुम्हारे कारण; यह कान के कारण नहीं। अब अगर तुम सिर के बल खड़े हो कर चलने की कोशिश करो और दस-पांच कदम चलना भी बहुत कठिन हो जाये और तुम कहो कि चलना बहुत दुःसाध्य घटना है, तो तुम गलत भी नहीं कह रहे; तुम ठीक ही कह रहे हो। लेकिन सिर के बल तुम खड़े हो । जो पैर के बल चल रहे हैं, उनके लिए चलने में कोई दुःसाध्य घटना नहीं है। अब तुम उपवास करो, आग में तपाओ, धूनी रमाओ, नाहक शरीर को कष्ट दो, सताओ, हजार तरह के पागलपन करोऔर फिर तुम कहो कि परमात्मा को पाना बड़ी दुःसाध्य घटना है, तो ठीक ही कह रहे हो । 44 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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