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________________ कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया! यूं कहीं तो था लिखा पर मैंने जो दिया, जो पाया, जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया, जो निथारा, जो छाना जो उतारा, जो चढ़ाया, जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा सबका जो कुछ हिसाब रहा, मैंने देखा कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे मैं तिर गया! ठीक है, मेरा सिर फिर गया। तिरता है आदमी-सिर के फिरने से। परमात्मा को तुम चढ़ाओ चुन-चुन कर चीजें, अच्छी-अच्छी चीजें-उससे कुछ न होगा, जब तक कि सिर न चढ़े। सुनो फिरः । जो कुछ सुंदर था, प्रेय, काम्य जो अच्छा, मंजा, नया था, सत्य-सार मैं बीन-बीन कर लाया नैवेद्य चढ़ाया पर यह क्या हुआ? सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया सूख गया, मुाया कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया! तुम ले आओ सुंदरतम को खोज कर, बहुमूल्य को खोज कर, चढ़ाओ कोहिनूर-कुम्हलायेंगे! तोड़ो फूल कमल के, गुलाब के, चढ़ाओ-कुम्हलायेंगे! एक ही चीज वहां स्वीकार है-वह तुम्हारा सिर; वह तुम्हारा अहंकार; वह तुम्हारी बुद्धि; वह तुम्हारा मन। अलग-अलग नाम हैं; बात एक ही है। वहां चढ़ाओ अपने को। और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे मैं तिर गया! ठीक है, मेरा सिर फिर गया! लोग तो यही कहेंगे, ओमप्रकाश, कि सिर फिर गया! कहने दो लोगों को। लोगों के कहने से कोई चिंता नहीं है। जब लोग तुमसे कहते हैं, सिर फिर गया, तो वे इतना ही कर रहे हैं कि अपने सिर की रक्षा कर रहे हैं, और कुछ नहीं। जब लोग तुमसे कहते हैं तुम्हारा सिर फिर गया, तो वे यह कह 136 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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