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________________ कभी दूर क्षितिज मालूम पड़ता है— मिल रहा आकाश पृथ्वी से । चल पड़ो; लगता है ऐसे घड़ी दो घड़ी में पहुंच जायेंगे। चलते रहो जन्मों-जन्मों तक, कभी भी उस जगह न पहुंचोगे जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है। बस मालूम होता; सदा मालूम होता मिल रहा – थोड़ी दूर आगे, बस थोड़ी दूर आगे ! क्षितिज कहीं है नहीं — सिर्फ दिखाई पड़ता है। जैसे बाहर क्षितिज है वैसे ही हमारी अवस्था है। यहां भीतर भी मिलन कभी हुआ नहीं। आत्मा कैसे मिले शरीर से ! मर्त्य का अमृत से मिलन कैसे हो ! दूध पानी में मिल जाता है— दोनों पृथ्वी के हैं। आत्मा शरीर से कैसे मिले - दोनों का गुणधर्म भिन्न है ! कितने ही पास हों, मिलन असंभव है । सनातन से पास हों तो भी मिलन असंभव है। मिलन हो नहीं सकता; सिर्फ हमारी प्रतीति है, हमारी धारणा है । क्षितिज हमारी धारणा है। हमने मान रखा है, इसलिए है। अष्टावक्र के वचनों को अगर जाने दोगे हृदय के भीतर तीर की तरह तो वे तुम्हारी याद को जगायेंगे; तुम्हारी भूली-बिसरी स्मृति को उठायेंगे; क्षण भर को आकाश जैसे खुल जायेगा, बादल कट जायेंगे; सूरज की किरणों से भर जायेगा प्राण । कठिनाई होगी, क्योंकि हमारे सारे जीवन के विपरीत होगा यह अनुभव। इससे बेचैनी होगी। और जो घटाएं छट गई हैं, ये तुम्हारे कारण नहीं छटी हैं; ये तो किसी शास्ता के वचनों का परिणाम हैं। फिर घटाएं घिर जायेंगी । तुम घर पहुंचते-पहुंचते फिर घटाओं को घेर लोगे। तुम अपनी आदत से इतनी जल्दी बाज थोड़े आओगे - फिर घटाएं घिर जायेंगी, तब और बेचैनी होगी कि जो दिखाई पड़ा था, वह सपना तो नहीं था; जो दिखाई पड़ा था, कहीं कल्पना तो नहीं थी, कहीं अहंकार का, मन का खेल तो न था, कहीं ऐसा तो न हुआ कि हम किसी पागलपन में पड़ गये थे ! स्वभावतः तुम्हारी आदतों का वजन बहुत पुराना है । अंधेरा बड़ा प्राचीन है । यद्यपि है नहीं—पर बहुत प्राचीन | सूरज की किरण कभी फूटती है तो बड़ी नयी है—अत्यंत नयी है, सद्यः स्नात! क्षण भर को दिखाई पड़ती है, फिर तुम अपने अंधेरे में खो जाते हो। तुम्हारे अंधेरे का बड़ा लंबा इतिहास है। जब तुम दोनों को तौलोगे तो शक किरण पर पैदा होगा, अंधेरे पर पैदा नहीं होगा। होना चाहिए अंधेरे पर — होता है किरण पर; क्योंकि किरण है नयी और अंधेरा है पुराना । अंधेरा है परंपरा जैसा सदियों सदियों की धारा है। किरण है अभी-अभी फूटी - ताजी, नयी, इतनी नयी कि भरोसा कैसे करें ! 4 ... लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं।' इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। इस पृथ्वी पर हम हो नहीं सकते। मान्यता है हमारी, धारणा है हमारी, लगता है— सत्य नहीं है। " . और मुझे, असीम आकाश में एक ज्योति-कण हूं, ऐसा प्रतीत हुआ ।' यह शुरुआत है : 'असीम आकाश में एक ज्योति-कण हूं।' जल्दी ही लगेगा कि असीम आकाश हूं। यह प्रारंभ है। तो असीम आकाश में भी अभी हम पूरी तरह लीन नहीं हो पाते। अगर लगता भी है कभी, कभी वह उड़ान भी आ जाती है, वह तूफान भी आ जाता है, हवाएं हमें ले भी जाती हैं - तो भी हम अपने को अलग ही बचा लेते हैं। 'ज्योति कण!' न रहे अंधेरे, हो गये ज्योति-कण; लेकिन आकाश से अभी भी भेद रहा, फर्क रहा, फासला रहा। घटना तो पूरी उस दिन घटेगी, जिस दिन तुम आकाश ही हो 28 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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