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________________ - अब मैं देखना चाहता हूं कि परमात्मा का आकर्षण कितना है? मैं हदूं और तुम खींचो ! अब तक मैं खिंचता था, तुम्हारा पता न चलता था। अभी तक मैं दौड़ता था और तुम मिलते न थे, अब मैं रुकता हूं। रहे-शौक से अब हटा चाहता हूं, कशिश हुस्न की देखना चाहता हूं। अब तुम्हीं पर छोड़ता हूं। अब देखें। अब तुम मुझे ढूंढो । मैंने बहुत ढूंढा । सब मैंने उपाय कर लिए। अब तुम मुझे ढूंढो ! 'अरे हां, रामरतन धन पायो ।' से और जिस दिन तुम हार कर बैठ जाते हो, अचानक तुम पाते हो वह सामने खड़ा है। वह सदा खड़ा था। तुम अपने खोजने की धुन में लगे थे। तुम्हारी धुन इतनी ज्यादा थी कि उसे देख न पाते थे । तुम्हारी धुन के कारण ही अवरोध पड़ रहा था । इसलिए तो अष्टावक्र कहते हैं, अनुष्ठान बाधा है। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि अनुष्ठान करना नहीं है। अनुष्ठान तो करना ही होगा, लाख जतन तो करने ही होंगे। जब तुम लाख जतन करके हार जाते हो, उसका एक जतन पर्याप्त हो जाता है उसकी तरफ से । मगर तुमने अर्जित कर लिया, तुम प्रसाद के योग्य हुए। तुम मुफ्त में नहीं पाते परमात्मा को, तुमने अपने जीवन को समर्पित किया। तुमने सब तरह से अपने जीवन को यज्ञ बनाया । कपल गुलाब पर शिशु प्रात के सूखते नक्षत्र जल के बिंदु से रश्मियों की कनक - धारा में नहा मुकुल हंसते मोतियों का अर्ध्य दे विहग शावक से जिस दिन मूक पड़े थे स्वप्न नीड़ में प्राण अपरिचित थी विस्मृत की रात नहीं देखा था स्वर्ण विहान रश्मि बन तुम आए चुपचाप सिखाने अपने मधुमय गान अचानक दीं वे पलकें खोल हृदय में बेध व्यथा का बाण हुए फिर पल में अंतरधान ! ऐसा बहुत बार होगा। तुम्हारे प्रयत्नों से तुम हारोगे । क्षण भर को हार कर तुम बैठोगे । अचानक किरण उतरेगी। अचानक नहा जाओगे उस किरण में । अचानक गीत तुम्हें घेर लेगा। अचानक तुम पाओगे किसी और लोक में पहुंच गए। अचानक तुम पाओगे, लग गए पंख, उड़ने लगे आकाश में; पृथ्वी के न रहे, आकाश के हो गए। फिर वापिस, फिर पाओगे वहीं के वहीं । 318 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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