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________________ ही नष्ट हो जाता है। __यह जीवन का रहस्य जब अपने से खुलता है-जब तुम प्रतीक्षा करते हो मौन, प्रार्थना करते हो, शांत-भाव से बैठते हो, और प्रभु को एक मौका देते हो कि खुले! तुम जल्दबाजी नहीं करते, तुम आग्रह नहीं करते। तुम कहते नहीं कि बहुत देर हो गई, मैं कितना यत्न कर चुका, अब खुलो! तुम कोई शर्त नहीं बांधते, तुम कोई सौदा नहीं करते। तुम कहते हो, जब तुम्हारी मर्जी हो, खुलना-मैं राजी हूं, मैं तैयार हूं! तुम मुझे पाओगे मौजूद। इस जन्म में तो इस जन्म में; अगले जन्म में तो अगले जन्म में; जल्दी मुझे कुछ नहीं है। तो एक तो वे लोग हैं, जो आक्रमण करते हैं, वे तो कभी नहीं पाते। फिर दूसरी ओर अप्ति पर दूसरे लोग हैं, वे कहते हैं : जब प्रयत्न से मिलता ही नहीं तो क्या करना; जब मिलेगा मिल जाएगा। वे कुछ करते ही नहीं। वे खाली बैठे रहते हैं। वे प्रतीक्षा तक नहीं करते। वे कहते हैं : जब करने से कुछ होता ही नहीं, भाग्य का मामला है, जब होना होगा, होगा; जब उसकी कृपा होगी, होगी। उसकी बिना आज्ञा के तो पत्ता भी नहीं हिलता, वे कहते हैं। ये दोनों ही नासमझ हैं। एक से अति सक्रियता पैदा होती है, जो कि रुग्ण और बुखार हो जाती है और विक्षिप्तता हो जाती है; और एक से अति अकर्मण्यता पैदा होती है, जिससे सुस्ती और आलस्य और तमस घिर जाता है। दोनों के मध्य में मार्ग है। प्रयत्न भी करना होगा और प्रसाद भी मांगना होगा। 'मैं तो लाख यतन कर हारयो।' मगर जल्दी मत हार जाना, लाख यतन कर हारना। कुछ लोग ऐसे हैं कि यतन तो करते नहीं, बैठे हैं; तो हारे ही नहीं। लाख यतन कर लेना। जो तुम कर सको, पूरा कर लेना। मगर अगर तुम्हारे करने से न मिले तो घबड़ा कर यह मत कहने लगना कि है ही नहीं। वहीं तो ठीक मौका आ रहा था, जब मिलने की घड़ी आ रही थी, उससे चूक मत जाना। जब तुम सब प्रयत्न कर चुको और हार . जाओ...हारे को हरिनाम! फिर तुम हरिनाम लेना। उस परम हार में परम विजय फलित होगी। 'मैं तो लाख यतन कर हारयो, अरे हां, रामरतन धन पायो।' बस तुम हारे कि रामरतन धन मिला। इधर हारे, उधर मिला। क्योंकि इधर तुम हारे कि तुम मिटे। तुम मिटे कि परमात्मा बरसा। तुम्हारी मिटने की ही देर थी। लेकिन बिना यत्न किए तुम मिट न सकोगे। यह विरोधाभासी लगता है। इसलिए मेरे वक्तव्य विरोधाभासी लगते हैं, पैराडॉक्सिकल लगते हैं। ऐसा ही समझो कि कोई आदमी मेरे पास आता है, वह कहता है : 'रात मुझे नींद नहीं आती, अनिद्रा से परेशान हूं। दवाइयां भी काम नहीं देतीं, अब मैं क्या करूं?' उसको मैं क्या कहता हूं? उसको मैं कहता हूं, तुम ऐसा करो कि शाम को एक पांच-छह मील का चक्कर लगाओ। वह कहता है, आप क्या कह रहे हैं? ऐसे ही तो नींद नहीं आती, और चार-पांच मील का चक्कर लगाऊंगा, तो फिर तो रात भर नींद न आएगी। मैं उसे कहता हूं, तुम फिक्र मत करो; तुम चार-पांच मील का चक्कर लगाओ। नींद के लिए जो सबसे जरूरी बात है, वह है हार जाना, थक जाना। आज बहुत-से लोग अनिद्रा से पीड़ित हैं—पूरब में कम, पश्चिम में बहुत ज्यादा। लेकिन जल्दी 316 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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