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________________ भी कोई दान रहा? सौदा हो गया । दान का मतलब होता है : हम बेशर्त देते हैं। दान का मतलब होता है: देने में मजा है, इसलिए देते हैं । देने में मजा अभी और यहीं है, इसलिए देते हैं । दान का मतलब हुआ, आगे इससे कोई संबंध नहीं; आगे हम इसके संबंध में कोई प्रतिकार नहीं चाहते, कोई पुरस्कार नहीं चाहते हैं। देने में मजा आया, इसलिए दिया है। अब देने से कोई और फल मिलना चाहिए, तो फिर लोभ आ गया । लोभ का मतलब होता है: फल की आकांक्षा, फलाकांक्षा । दान का अर्थ होता है: फलाकांक्षाशून्य देना; देने का मजा, देने का आनंद । तुमने किसी को दिया, और अगर धन्यवाद की भी आकांक्षा रखी तो दान भ्रष्ट हो गया । तुमने अगर लौट कर यह भी देखा कि इस आदमी ने शुक्रिया कहा या नहीं कहा, तुम सोचने लगे बाद में कि यह भी कैसे अपात्र को दे दिया कि उसने धन्यवाद भी न दिया...। एक झेन फकीर के पास एक आदमी हजारों स्वर्ण-अशर्फियां ले कर आया। उसने बड़े जोर से अशर्फियों का थैला पटका। उनकी खनखनाहट पूरे मंदिर में गूंज गई। लोग ऐसे ही दान देते हैं- खनखनाहट की आवाज ! उस फकीर ने जोर से कहा कि झोला धीमे से नहीं रख सकते ? वह आदमी थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि वह करोड़पति था, उस गांव का सबसे धनपति था। और यह फकीर... ! और वह देने आया है; धन्यवाद की तो बात दूर रही, यह उससे कहता है, झोला शांति से नहीं रख सकते? पर उसने कहा, आप सुनें महाराज! लाखों रुपये लाया हूं आपको भेंट करने! उसने कहा, ठीक !. मगर उसने धन्यवाद भी न दिया । वह धनपति जरा बेचैन होने लगा। उसने कहा, महाराज कुछ तो कहें। उसने कहा, अब कुछ क्या कहना है? मुझको तुम धन्यवाद दो और जाओ । वह धनपति बोला, यह जरा सीमा के बाहर की बात हो गई। धन्यवाद मैं आपको दूं और जाऊं - मतलब ? तो उसने कहा, दान स्वीकार कर लिया है, इसकी दक्षिणा न दोगे ? तुम्हारा दान स्वीकार कर लिया, इसके लिए धन्यवाद न करोगे ? तुम्हारा दान इंकार भी किया जा सकता था, फिर क्या करते ? तो या तो धन्यवाद दो, या उठा लो झोला, जाओ अपने घर; फिर दुबारा इस तरफ मत आना। दान का अर्थ ही यह होता है। इसलिए तुमने देखा, हिंदू दान देते हैं, फिर दक्षिणा देते हैं! दक्षिणा का मतलब है धन्यवाद, कि आपने स्वीकार कर लिया । दान दक्षिणा के बिना अधूरा रह जाता है। लोभ से दिया गया दान तो दान नहीं, लोभ का ही विस्तार है। अगर गलत हो तो तुम जो करोगे, वह सब गलत होगा। तुम्हारा मंदिर जाना गलत, तुम्हारी पूजा गलत, तुम्हारी प्रार्थना गलत, तुमसे निकलेगी - सही हो कैसे सकती है ? और अगर तुम सही हो, तो तुम जो करोगे, वह सही है। इसलिए तो कृष्ण अर्जुन से कह सके कि लड़, बस तू भीतर सही हो जा; तू भीतर परमात्मा से जुड़ जा; तू भीतर अनुभव कर ले कि मैं नहीं हूं, वही है; फिर तू काट, बेफिक्री से काट; फिर हिंसा में भी पाप नहीं है। प्रभु प्रसाद - परिपूर्ण प्रयत्न से 301
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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