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________________ मैंने सुना है, महाराष्ट्र की एक प्राचीन कथा है : रांका और बांका पति-पत्नी थे। रांका पति था, बांका उसकी पत्नी का नाम था। थी भी वह बांकी औरत। रांका बड़ा त्यागी था। उसने सब छोड़ दिया था। वह भीख भी नहीं मांगता था। वह रोज जा कर जंगल से लकड़ी काट लाता और बेच देता, जो बचता, उससे भोजन कर लेता। सांझ अगर कुछ बच जाता, तो उसको बांट देता। रात फिर भिखमंगे हो कर सो जाते। सुबह फिर लकड़ी काटने चला जाता। एक दिन ऐसा हआ कि वह बीमार था और तीन दिन तक लकड़ी काटने न जा सका। तो तीन दिन घर में चूल्हा न जला। चौथे दिन कमजोर तो था, लेकिन जाना पड़ा। पत्नी भी साथ गई सहारा देने को। लकड़ियां काटी। रांका अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लिये चलने लगा। पीछे-पीछे उसकी पत्नी चलने लगी। राह के किनारे अभी-अभी कोई घुड़सवार निकला है, घोड़े के पदचाप बने हैं, और धूल अभी तक उड़ रही है। और देखा उन्होंने कि किनारे एक अशर्फियों से भरी थैली पड़ी है, शायद घुड़सवार की गिर गई है। रांका आगे है। उसके मन में सोच उठा कि मैं तो हूं त्यागी, मैंने तो विजय पा ली, मेरे लिये तो धन मिट्टी है; मगर पत्नी तो पत्नी है, कहीं उसका मन न आ जाये, लोभ न आ जाये; कहीं सोचने न लगे रख लो, कभी दुर्दिन में काम आ जायेगी; अब तीन दिन भूखे रहना पड़ा, एक पैसा पास न था। ऐसा सोच कर उसने जल्दी से अशर्फियों से भरी थैली पास के एक गड्ढे में सरका कर उसके ऊपर मिट्टी डाल दी। वह मिट्टी डाल कर चुक ही रहा था कि पत्नी आ गई। उसने पूछा, क्या करते हो? ___ तो रांका ने कसम खाई थी झूठ कभी न बोलने की, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। कहे, तो डर लगा कि यह पत्नी झंझट न करने लगे; और कहे कि रख लो, हर्ज क्या है, भाग्य ने दी है, भगवान ने दी है, रख लो-कहीं ऐसा न कहने लगे! स्त्री का भरोसा क्या! साधु-संन्यासी स्त्री से सदा डरे रहे। मगर झूठ भी न बोल सका, क्योंकि कमस खा ली थी। तो उसने मजबूरी में कहा कि सुन, मुझे क्षमा कर, और कोई और बात मत उठाना, सत्य कहे देता हूं: यहां थैली पड़ी थी, यह सोच कर कि तेरा लोभ न जग जाये, मैं तो खैर लोभ का त्याग कर चुका, मगर तेरा क्या भरोसा! स्त्री यानी स्त्री। स्त्री का कहीं मोक्ष होता है! जब तक वह पुरुष न हो जाये, तब तक मोक्ष नहीं कहते धर्मशास्त्र-सब धर्मशास्त्र पुरुषों ने लिखे हैं; वहां भी बड़ी राजनीति है-तो तू स्त्री है, कमजोर हृदय की है, रागात्मक तेरी प्रवृत्ति है। तू कहीं उलझ न जाये, इसलिए तेरे को ध्यान में रख कर मैंने ये अशर्फियां मिट्टी में ढक दी हैं और ऊपर से मिट्टी डाल रहा हैं। रांका की बात सुन कर बांका खूब हंसने लगी। उसे नाम इसीलिए तो बांका मिला। वह कहने लगी, यह भी खूब रही। मिट्टी पर मिट्टी डालते तुम्हें शर्म नहीं आती? और जरूर तुम्हारे भीतर कहीं लोभ बाकी है। जो तुम मुझ में सोचते हो, वह तुम्हारे भीतर कहीं छिपा होगा। जो तुम मुझ पर आरोपित करते हो, वह कहीं तुम्हारे भीतर दबा पड़ा होगा। तुम्हें अभी सोना, सोना दिखाई पड़ता है ? तुम्हें अभी भी सोने और मिट्टी में फर्क मालूम होता है ? __वह तो रोने लगी, वह तो कहने लगी कि मैं तो सोचती थी कि तुम त्यागी हो गये! यह क्या हुआ, अभी तक धोखा ही चला! तुम मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो! यह बांका समझती जनक का सूत्र। जनक परम ज्ञान को उपलब्ध हो गये और कुछ भी न छोड़ा! दुख का मूल द्वैत है 277
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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