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________________ दिया गया; महावीर और बुद्ध पर पत्थर फेंके गए, ठीक — लेकिन अष्टावक्र की तो पूछो: अभी जन्मा भी नहीं और अभिशाप मिला; अभी गर्भ में ही था कि जीवन विकृत कर दिया गया। और किसी दूसरे ने किया होता तो भी ठीक था, क्षमा- योग्य था - खुद अपने ही बाप ने कर दिया; जो जन्म देने जा रहा था वही नाराज हो गया। ज्ञान की बात लोगों को जमती नहीं । ज्ञान की बात लोगों को कष्ट देती है । मस्ती में आया हुआ आदमी लोगों को बेचैनी से भरता है। तुम दुखी हो, किसी को कोई अड़चन नहीं, मजे से दुखी रहो। लोग कहते हैं : दिल खोल कर दुखी रहो, कोई हर्जा नहीं। बिलकुल जैसा होना चाहिए वैसा हो रहा है! तुम हंसे कि लोग बेचैन हुए । हंसी स्वीकृत नहीं है। लोगों को शक होता है कि पागल हुए ! कहीं होशियार आदमी हंसते हैं? कहीं समझदार आदमी हंसते देखे ? कहीं बुद्धिमान आदमियों को नाचते देखा, गीत गुनगुनाते देखा ? बुद्धिमान आदमी गंभीर होते, लंबे उनके चेहरे होते, उदास उनकी वृत्ति होती। उनको हम साधु-संत कहते, महात्मा कहते। जितना रुग्ण आदमी हो, उतना बड़ा महात्मा हो जाता है। मुर्दे की तरह कोई बैठ जाये, रुग्ण, दीन-हीन- लोग कहते हैं, कैसी तपश्चर्या ! कैसा त्याग ! ! एक गांव में मैं गया था। कुछ लोग एक महात्मा को ले आये मुझसे मिलाने । वे कहने लगे, बड़े अदभुत हैं, भोजन तो कभी-कभार लेते हैं, सोते भी ज्यादा नहीं। बड़े शांत हैं । बोलते - करते भी ज्यादा नहीं। और तपश्चर्या का ऐसा प्रभाव कि चेहरा कुंदन जैसा निखर आया है, स्वर्ण जैसा ! जब वे लाये तो मैंने कहा, इस आदमी को क्यों तुम परेशान किये हो ? यह बीमार है। यह चेहरा कुंदन जैसा नहीं है, यह केवल भूखा-प्यासा आदमी है— चेहरा पीला पड़ गया है ; अनीमिया हो गया है। तुम महात्मा समझ रहे हो ? और यह बोले क्या खाक! इसमें बोलने की शक्ति भी नहीं है। यह आदमी थोड़ा मूढ़ प्रवृत्ति का मालूम होता है। आंखों में कोई तेज नहीं है, कोई व्यक्तित्व नहीं है, कोई उमंग नहीं है। हो भी कैसे? न सोता है ठीक से, न खाता-पीता है ठीक से । और तुम इसकी पूजा कर . रहे हो! बस इसको एक ही रस आ गया है कि यह काम कर रहा है, उससे इसे पूजा मिलती है। बस उसी पूजा की खातिर यह किये चला जा रहा है। तुम जरा पूजा देना बंद करो। और तुम पाओगे तुम्हारे सौ में से निन्यानबे प्रतिशत महात्मा विदा हो गए, उसी रात विदा हो गए, तुम पूजा देना बंद करो। क्योंकि वे पूजा की खातिर सब तरह की नासमझियां कर रहे हैं; तुम जो करवाओ वही कर रहे हैं। तुम कहो, बाल लोंचो, तो वे बाल लोंच रहे हैं; केश - लुंच कर रहे हैं। तुम कहो, नंगे रहो, तो वे नंगे खड़े हैं। तुम कहो, भूखे रहो, तो वे भूखे हैं। एक बात भर तुम पूरी करो कि तुम सम्मान दो, उनके अहंकार को पुष्ट करो I वास्तविक धर्म तो सदा हंसता हुआ है। वास्तविक धर्म तो सदा स्वस्थ है, प्रफुल्लित है, जीवनस्वीकार का है। वास्तविक धर्म तो फूलों जैसा है, उदासी वहां नहीं है । उदासी को लोग शांति समझते हैं! उदासी शांति नहीं है। शांति तो बड़ी गुनगुनाती होती है। शांति तो बड़ी मगन होती है। शांति तो बड़ी शराबी है - पैर लड़खड़ाते हैं; एक मस्ती घेरे रहती है; चलते जमीन पर हैं, और जमीन पर नहीं चलते, आकाश में चलते हैं; जैसे पंख उग आते हैं; अब उड़े तब उड़े की हालत होती है। ठीक हुआ, अगर मेरी शराब का स्वाद आ जाये, तो असली शराब का स्वाद आ गया, अब किसी और मधुशाला में जाने की जरूरत न पड़ेगी। 260 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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