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________________ अष्टावक्र तुमसे कह रहे हैं कि तुम उससे कभी दूर गए ही नहीं हो, इसलिए घट सकता है. अकारण । खोया ही न हो तो मिलना हो सकता है अकारण । संबोधि कोई घटना नहीं है, स्वभाव है। लेकिन, ऐसा कहीं हो सकता है कि बिना किये प्रसाद बरस जाये ? हम बड़े दीन हो गए हैं। दीन हो गए हैं जीवन के अनुभव से। यहां तो कुछ भी नहीं मिलता बिना किये, तो हम बड़े दीन हो गए हैं। हम तो सोच भी नहीं सकते कि परमात्मा, और बिना किये मिल सकता है । हमारी दीनता सोच नहीं सकती । हम दीन नहीं हैं। इसलिए तो जनक कहते हैं कि 'अहो ! मैं आश्चर्य हूं ! मुझको मेरा नमस्कार ! मुझको मेरा नमस्कार ! इसका अर्थ हुआ कि भक्त और भगवान दोनों मेरे भीतर हैं। दो कहना भी ठीक नहीं, एक ही मेरे भीतर है, भूल से उसे मैं भक्त समझता हूं; जब भूल छूट जाती है तो उसे भगवान हूं। ऐसा ही समझो कि तुम्हारे कमरे में तुमने दो कुर्सियां ले जा कर रखीं; फिर और दो कुर्सियां ले जा कर रखीं, गलती से तुम ने जोड़ लीं पांच, मगर कमरे में तो चार ही हैं। तुम चाहे गलती से पांच जोड़ो चाहे छह, चाहे पचास जोड़ो, तुम्हारे गलत जोड़ने से कमरे में कुर्सियां पांच नहीं होतीं; कुर्सियां तो चार ही हैं, तुम चाहे तीन जोड़ो चाहे पांच जोड़ो। तुम्हारा तीन पांच तुम जानो, कुर्सियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कुर्सियां तो चार ही हैं। यह तुम जो सोच रहे हो कि परमात्मा को खोजना है, यह तुम्हारा तीन- पांच है। परमात्मा तो मिला ही हुआ है; कुर्सियां तो चार ही हैं। जब भी गणित ठीक बैठ जायेगा, तुम कहोगे, अहो ! पहले पांच कुर्सियां थीं, अब चार हो गईं— ऐसा तुम कहोगे ? तुम कहोगे, बड़ी भूल हो रही थी, कुर्सियां तो सदा से चार थीं, मैंने पांच जोड़ ली थीं। भूल सिर्फ जोड़ने की थी । भूल अस्तित्व में नहीं है-भूल केवल स्मरण में है । भूल अस्तित्व में नहीं है-भूल केवल तुम्हारे गणित में है । भूल ज्ञान में है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, कुछ करने का सवाल नहीं है। पांच कुर्सियों को चार करने के लिए एक कुर्सी बाहर नहीं ले जानी है; या तीन तुमने जोड़ी हैं, तो चार करने को एक बाहर से नहीं लानी है— कुर्सियां तो चार ही हैं। सिर्फ भूल है जोड़-तोड़ की । जोड़-तोड़ ठीक बिठा लेना है। तो जब जोड़ ठीक बैठ जायेगा, तब तुम क्या कहोगे कि अकारण तीन से कुर्सियां चार हो गईं, अकारण पांच से चार हो गईं ? नहीं, तब तुम हंसोगे। तुम कहोगे, होने की तो बात ही नहीं, वे थीं ही; भूल सिर्फ हम सोचने की कर रहे थे; सिर्फ भूल मन की थी, अस्तित्व की नहीं थी । भक्त तुम अपने को जानते हो – यह जोड़ की भूल । इसलिए तो जनक कह सके: अहो ! मेरा मुझको नमस्कार! कैसा पागल मैं कैसा आश्चर्य कि अपने ही माया-मोह में भटका रहा! जो सदा था उसे न जाना, और जो कभी भी नहीं था, उसे जान लिया ! रस्सी में सांप देखा ! सीपी में चांदी देखी ! किरणों के जाल से मरूद्यान के भ्रम में पड़ गया, जल देख लिया ! जो नहीं था, देखा ! जो था, वह इस माया में, झूठे भ्रम में छिप गया और दिखाई न पड़ा! संबोधि महान घटना है, क्योंकि घटना ही नहीं है । संबोधि महान घटना है, क्योंकि कार्य-कारण हरि ॐ तत्सत् 249
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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