SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हो जाता है। बात करो तो गीत जैसी मालूम होने लगती है। चलो तो नृत्य जैसा लगता है। नहीं, छिपता नहीं! खैर, खून, खांसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान, रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान। उदघोषणा होकर रहती है। सत्य स्वभावतः उदघोषक है। जैसे ही सत्य की घटना भीतर घटती, तुम्हारे अनजाने उदघोषणा होने लगती है। __ जनक ने ये शब्द सोच-सोच कर नहीं कहे हैं; सोच-सोच कर कहते तो संकोच खा जाते। अभी-अभी अष्टावक्र को लाये हैं, अभी-अभी अष्टावक्र ने थोड़ी-सी बातें कही हैं और जनक को घटना घट गई! संकोच करते, अगर बुद्धि से हिसाब लगाते, कहते, 'क्या सोचेंगे अष्टावक्र कि मैं अज्ञानी, और ऐसी बातें कह रहा हूं! ये तो परम ज्ञानियों के योग्य हैं। इतने जल्दी कहीं घटना घटती है! अभी सुना और घट गई, ऐसा कहीं हुआ है! समय लगता है, जनम-जनम लगते हैं, बड़ी दूभर यात्रा है; खड्ग की धार पर चलना होता है।' सब बातें याद आई होती, और सोच कर कहा होता कि इतने दूर तक ऐसी घोषणा मत करो। ___ लेकिन यह घोषणा अपने से हो रही है, यह मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं। जनक कह रहे हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं; जनक से कहा जा रहा है, ऐसा कहना ठीक है। . ___आश्चर्य है कि कल्पित संसार अज्ञान से मुझमें ऐसा भासता है, जैसे सीपी में चांदी, रस्सी में सांप, सर्य की किरणों में जल भासता है।' अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते। रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा।। जैसे सीपी में चांदी का भ्रम हो जाता, रस्सी में कभी अंधेरे में सांप की भ्रांति हो जाती है और मरुस्थल में सूर्य की किरणों के कारण कभी-कभी मरूद्यान का भ्रम हो जाता है, मृग-मरीचिका पैदा हो जाती है। __ आश्चर्य है! यह घटना इतनी आकस्मिक घटी है, यह घटना इतनी तीव्रता से घटी है, यह जनक को बोध इतना त्वरित हुआ है कि जनक सम्हल नहीं पाये! आश्चर्य से भरे हैं। जैसे एक छोटा-सा बच्चा परियों के लोक में आ गया हो, और हर चीज लुभावनी हो, और हर चीज भरोसे के बाहर हो। __ तरतूलियन ने कहा है : जब तक परमात्मा का दर्शन नहीं हुआ, तब तक अविश्वास रहता है; और जब परमात्मा का दर्शन हो जाता है, तब भी अविश्वास रहता है। ___ उसके शिष्यों ने पूछा ः हम समझे नहीं। हमने तो सुना है कि जब परमात्मा का दर्शन हो जाता है, तो विश्वास आ जाता है। तरतूलियन ने कहाः जब तक दर्शन नहीं हुआ, अविश्वास रहता है कि परमात्मा हो कैसे सकता है? असंभव! अनुभव के बिना कैसे विश्वास! और जब परमात्मा का अनुभव होता है, तो भरोसा नहीं आता कि इतना आनंद हो सकता है! इतना प्रकाश! इतना अमृत! तब भी असंभव लगता है। जब तक नहीं हुआ, तब तक असंभव लगता है; जब हो जाता है, तब और भी असंभव लगता है। 228 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy