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________________ से थोड़े ही कुछ आता है ! हर चीज के पीछे कारण है। नहीं देख पाये हों हम, लेकिन था तो मौजूद। ये सारी कथाएं इसी का सूचन देती हैं। अष्टावक्र के संबंध में दूसरी बात जो ज्ञात है, वह है जब वे बारह वर्ष के थे। बस दो ही बातें ज्ञात हैं। तीसरी उनकी अष्टावक्र गीता है; या कुछ लोग कहते हैं 'अष्टावक्र - संहिता'। जब वे बारह वर्ष के थे तो एक बड़ा विशाल शास्त्रार्थ जनक ने रचा । जनक सम्राट थे और उन्होंने सारे देश के पंडितों को निमंत्रण दिया। और उन्होंने एक हजार गायें राजमहल के द्वार पर खड़ी कर दीं और उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और हीरे-जवाहरात लटका दिये, और कहा, 'जो भी विजेता होगा वह इन गायों को हांक कर ले जाये ।' बड़ा विवाद हुआ ! अष्टावक्र के पिता भी उस विवाद में गये। खबर आई सांझ होते-होते कि पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे, वंदिन नाम के एक पंडित से हारे जा रहे हैं। यह खबर सुन कर अष्टावक्र भी राजमहल पहुंच गया। सभा सजी थी। विवाद अपनी आखिरी चरम अवस्था में था । निर्णायक घड़ी करीब आती थी । पिता के हारने की स्थिति बिलकुल पूरी तय हो चुकी थी। अब हारे तब हारे की अवस्था थी । अष्टावक्र दरबार में भीतर चला गया। पंडितों ने उसे देखा । महापंडित इकट्ठे थे ! उसका आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर ! वह चलता तो भी देख कर लोगों को हंसी आती। उसका चलना भी बड़ा हास्यास्पद था। सारी सभा हंसने लगी । अष्टावक्र भी खिलखिला कर हंसा । जनक ने पूछा: 'और सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ गया क्यों हंसते हैं; लेकिन बेटे, तू क्यों हंसा ?' अष्टावक्र ने कहा: 'मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है !' बड़ा... आदमी अनूठा रहा होगा! 'ये चमार यहां क्या कर हैं ?' सन्नाटा छा गया!...चमार ! सम्राट ने पूछा : 'तेरा मतलब ?' उसने कहा : 'सीधी-सी बात है । इनको चमड़ी ही दिखायी पड़ती है, मैं नहीं दिखायी पड़ता। मुझसे सीधा-सादा आदमी खोजना मुश्किल है, वह तो इनको दिखायी ही नहीं पड़ता; इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखायी पड़ता है। ये चमार हैं! ये चमड़ी के पारखी हैं। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है । मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ तो देखो ! इससे तुम सीधा-सादा और कुछ खोज न सकोगे।' यह बड़ी चौंकाने वाली घोषणा थी, सन्नाटा छा गया होगा । जनक प्रभावित हुआ, झटका खाया। निश्चित ही कहां चमारों की भीड़ इकट्ठी करके बैठा है ! खुद पर भी पश्चात्ताप हुआ, अपराध लगा कि मैं भी हंसा । उस दिन तो कुछ न कहते बना, लेकिन दूसरे दिन सुबह जब सम्राट घूमने निकला था तो राह पर अष्टावक्र दिखायी पड़ा। उतरा घोड़े से, पैरों में गिर पड़ा। सबके सामने तो हिम्मत न जुटा पाया, एक दिन पहले। एक दिन पहले तो कहा था, 'बेटे, तू क्यों हंसता है ?' बारह साल का लड़का था। उम्र तौली थी । आज उम्र नहीं तौली। आज घोड़े से उतर गया, पैर पर गिर पड़ा - साष्टांग दंडवत ! और कहा : पधारें राजमहल, मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें ! हे प्रभु, आयें मेरे घर ! बात मेरी समझ आ गई है ! रात भर मैं सो न सका । ठीक ही कहा : शरीर को ही जो पहचानते हैं उनकी पहचान गहरी कहां! आत्मा के संबंध में विवाद कर रहे हैं, और अभी भी शरीर में रस और विरस पैदा होता 10 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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