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आसमान का अंतर हो जाता है! जो बीज वाला है, वह भी यह कह रहा है कि जो बीज में नहीं है वह फूल में कैसे हो सकता है ! यह उसका तर्क है। फूल वाला भी यही कह रहा है। वह कह रहा है, जो फूल में है वह बीज में भी होना ही चाहिए। दोनों का तर्क तो एक है। लेकिन दोनों के देखने के ढंग अलग हैं। बड़ी अड़चन है !
मुझसे कोई पूछता था कि आपके साथ बचपन में बहुत लोग पढ़े होंगे - स्कूल में, कालेज में वे दिखायी नहीं पड़ते। वे कैसे दिखायी पड़ सकते हैं! उनको बड़ी अड़चन है । वे भरोसा नहीं कर सकते। अति कठिन है उन्हें ।
कल ही मेरे पास रायपुर से किसी ने एक अखबार भेजा । श्री हरिशंकर परसाई ने एक लेख मेरे खिलाफ लिखा है। वे मुझे जानते हैं, कालेज के दिनों से जानते हैं। हिंदी के मूर्धन्य व्यंग्यलेखक हैं। मेरे मन में उनकी कृतियों का आदर है। लेख में उन्होंने लिखा है कि जबलपुर की हवा में कुछ खराबी है। यहां धोखेबाज और धूर्त ही पैदा होते हैं— जैसे रजनीश, महेश योगी, मूंदड़ा। तीन नाम उन्होंने गिनाए । धन्यवाद उनका, कम से कम मेरा नाम नंबर एक तो गिनाया। इतनी याद तो रखी ! एकदम बिसार नहीं दिया। बिलकुल भूल गये हों, ऐसा नहीं है।
लेकिन अड़चन स्वाभाविक है, सीधी-साफ है। मैं उनकी बात समझ सकता हूं। यह असंभव है— बीज को देखा तो फूल में भरोसा ! फिर जिन्होंने फूल को देखा, उन्हें बीज में भरोसा मुश्किल हो है। सभी महापुरुषों की जीवन-कथाएं दो ढंग से लिखी जाती हैं। जो उनके विपरीत हैं, वे
. बचपन से यात्रा शुरू करते हैं; जो उनके पक्ष में हैं, वे अंत से यात्रा शुरू करते हैं और बचपन की तरफ जाते हैं। दोनों एक अर्थ में सही हैं। लेकिन जो बचपन से यात्रा करके अंत की तरफ जाते हैं, वे वंचित रह जाते हैं। उनका सही होना उनके लिए आत्मघाती है, जो अंत से यात्रा करते हैं और पीछे की तरफ़ जाते हैं, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि बहुत कुछ उन्हें अनायास मिल जाता है, जो कि पहले तर्कवादियों को नहीं मिल पाता।
अब न केवल मैं गलत मालूम होता हूं, मेरे कारण जबलपुर तक की हवा उनको गलत मालूम होती है : कुछ भूल हवा-पानी में होनी चाहिए ! यद्यपि मैं उनको कहना चाहूंगा, जबलपुर को कोई ह नहीं है मेरे संबंध में हवा-पानी को अच्छा या खराब तय करने का। जबलपुर से मेरा कोई बहुत नाता नहीं है। थोड़े दिन वहां था । महेश योगी भी थोड़े दिन वहां थे । उनका भी कोई नाता नहीं है। हम दोनों का नाता किसी और जगह से है। उस जगह के लोग इतने सोए हैं कि उन्हें अभी खबर ही नहीं है। महेश योगी और मेरा जन्म पास ही पास हुआ। दोनों गाडरवाड़ा के आस-पास पैदा हुए। उनका जन्म चीचली में हुआ, मेरा जन्म कुछवाड़े में हुआ। अगर हवा-पानी खराब है तो वहां का होगा। इसका दुख गाडरवाड़ा को होना चाहिए—कभी होगा। या सुख...। जबलपुर को इसमें बीच में आना नहीं चाहिए।
लेकिन मन कैसे तर्क रचता है !
अब जो अष्टावक्र की कथा को देखेगा, वह सुनते से ही कह देगा : 'गलत! असंभव !' यह तो कथा जिन्होंने लिखी है उनको भी पता है कि कहीं कोई गर्भ से बोलता है! वे तो केवल इतना कह रहे हैं कि जो आखिर में प्रगट हुआ वह गर्भ में मौजूद रहा होगा; जो वाणी आखिर में खिली वह किसी न किसी गहरे तल पर गर्भ में भी मौजूद रही होगी, अन्यथा खिलती कहां से आती कहां से? शून्य
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सत्य का शुद्धतम वक्तव्य
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