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आकाश में, चांद-तारों के साथ खेल सकेगा - फिर कोई बात नहीं। फिर शरीर से कोई झगड़ा नहीं है; फिर शरीर विश्राम का स्थल है। जब थक जायेगा, तुम भीतर लौट कर विश्राम भी करोगे। फिर शरीर से कोई दुश्मनी भी नहीं है । शरीर फिर मंदिर है।
दूसरा प्रश्न: कल आपने कहा कि आप तो सदा हमारे साथ हैं, लेकिन हमारे संन्यास लेने से हम भी आपके साथ हो लेते हैं। मुझे तो ऐसा कोई क्षण स्मरण नहीं आता, जब मैंने
संन्यास लिया हो : कब लिया, कहां लिया! आपने ही दिया था। मैं आप तक पहुंचा कहां हूं अभी ! मुझे तब कुछ पता न था संन्यास का, और न आज ही है। तो कैसे होऊं संन्यस्त प्रभु ? कैसे आऊं मैं आप तक ? मेरी उतनी पात्रता कहां! मेरी उतनी श्रद्धा व समर्पण कहां!
ऐसा भी बहुत बार हुआ है कि मैंने संन्यास उनको भी दिया है, जिन्हें संन्यास का कोई भी पता नहीं। उन्हें भी संन्यास दिया है, जो संन्यास लेने आये नहीं थे । उन्हें भी संन्यास दिया है, जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संन्यास के लिए नहीं सोचा था। क्योंकि तुम्हारे मन को ही मैं नहीं देखता, तुम्हारे मन के अचेतन
में दबी हुई बहुत-सी बातों को देखता हूं।
कल रात्रि ही एक युवती आई। उससे मैंने पूछा भी नहीं । उससे मैंने कहा, 'आंख बंद कर और संन्यास ले।' उससे मैंने पूछा भी नहीं कि तू संन्यास चाहती है? उसने आंख बंद कर ली, और संन्यास स्वीकार कर लिया। अन्यथा आदमी चौंकता है। आदमी सोचता है! संन्यास लेना है तो महीनों सोचते हैं कुछ लोग, वर्षों सोचते हैं। कुछ तो सोचते-सोचते मर गये और नहीं ले पाये । उसने चुपचाप स्वीकार कर लिया। उसे चेतन रूप से कुछ भी पता नहीं है।
लेकिन हम नये थोड़े ही हैं - हम अति प्राचीन हैं ! वह युवती बहुत जन्मों से खोजती रही है। ध्यान की उसके पास संपदा है। उस संपदा को देख कर ही मैंने कहा कि तू डूब, आंख बंद कर ! उससे मैंने कहा, तुझसे मैं पूछूंगा नहीं कि तुझे संन्यास लेना या नहीं। पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा ही मैंने 'दयाल' को भी संन्यास दिया था। दयाल का यह प्रश्न है । दयाल से पूछा नहीं है, दयाल को पता भी नहीं है।
तुम्हें अपना ही पता कहां है! तुम कहां से आते हो, पता नहीं । क्या-क्या संचित संपदा लाते हो,
नियंता नहीं साक्षी बनो
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