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दिखाई पड़ रहा है, रस्सी तो दिखाई पड़ती नहीं ।' तो तुम अगर हिम्मत करके, राम राम जप कर किसी तरह अकड़ कर खड़े हो जाओ कि चलो नहीं सांप है, रस्सी है, रस्सी है, रस्सी है, तो भी तुम्हारे भीतर तो तुम जानोगे सांप ही है, किसको झुठला हो ? पास मत चले जाना, कोई झंझट न हो जाए ! भागते 'तुम चले ही जाओगे। तुम कहोगे, रस्सी है। माना कि रस्सी है, मगर पास क्यों जाएं ?
अब जो आदमी संसार छोड़ कर भागता है - वह कहता है, संसार माया है, फिर भी भागता है । थोड़ा उससे पूछो कि अगर माया है तो भाग क्यों रहे हो ? अगर है ही नहीं तो भाग कहां रहे हो ? किसको छोड़ कर जा रहे हो ? वह कहता है, धन तो मिट्टी है। तो फिर धन से इतने घबड़ाए क्यों हो? फिर इतने भयभीत क्यों हो रहे हो ? अगर धन मिट्टी है तो मिट्टी से तो तुम भयभीत नहीं होते! तो धन से क्यों भयभीत हो रहे हो ? मिट्टी है, अगर दिखाई ही पड़ गया, तो बात ठीक है; धन पड़ा रहे तो ठीक, न पड़ा रहे तो ठीक। कभी मिट्टी की जरूरत होती है तो आदमी मिट्टी का भी उपयोग करता है; धन की जरूरत हुई, धन का उपयोग कर लेता है। लेकिन अब यह सब स्वप्नवत है, खेल जैसा है।
दूसरी धारा ज्यादा गहरी और सत्य के करीब है कि तुम दीया जलाओ और रस्सी को रस्सी की भांति देख लो, तो संसार गया, सांप गया ।
'आत्मा के अज्ञान से संसार भासता है और आत्मा के ज्ञान से नहीं भासता है ।'
आत्मा को देख लो, संसार नहीं दिखाई पड़ता । संसार को देखो, आत्मा नहीं दिखाई पड़ती। दो में से एक ही दिखाई पड़ता है, दोनों साथ-साथ दिखाई नहीं पड़ते। अगर तुम्हें संसार दिखाई पड़ रहा है तो आत्मा दिखाई नहीं पड़ेगी। आत्मा दिखाई पड़ने लगे, संसार दिखाई नहीं पड़ेगा। इन दोनों को साथ-साथ देखने का कोई भी उपाय नहीं है ।
यह तो ऐसे ही है कि जैसे तुम कमरे में बैठे हो, अंधेरा अंधेरा दिखाई पड़ रहा है। फिर तुम रोशनी ले आओ कि जरा अंधेरे को गौर से देखें, रोशनी में देखें तो और साफ दिखाई पड़ेगा। फिर कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। रोशनी ले आए तो अंधेरा दिखाई न पड़ेगा। अगर अंधेरा देखना हो तो रोशनी भूल कर मत लाना। अगर अंधेरा न देखना हो तो रोशनी लाना। क्योंकि अंधेरा और रोशनी साथ-साथ दिखाई नहीं पड़ सकते। क्यों नहीं दिखाई पड़ते साथ-साथ ? क्योंकि अंधेरा रोशनी का अभाव है। जब रोशनी का भाव हो जाता है तो अभाव साथ-साथ कैसे होगा ?
संसार आत्मज्ञान का अभाव है । जब आत्मज्ञान का उदय होगा तो संसार गया। सब जहां का तहां रहता है और फिर भी कुछ वैसा का वैसा नहीं रह जाता। सब जहां का तहां - और सब रूपांतरित हो जाता है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप संन्यास देते हैं, लेकिन लोगों को कहते नहीं कि घर छोड़ें, पत्नी छोड़ें, बच्चे छोड़ें। मैं कहता हूं कि मैं उनको यह नहीं कहता कि छोड़ें; मैं उनको इतना ही कहता कि आत्मवत हों, आत्मवान हों, ताकि दिखाई पड़ने लगे कि जो है वह है । जो है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जो नहीं है, उसे छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है ।
हम जो देखना चाहें देख लेते हैं।
अदालत में एक मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा, मुल्ला नसरुद्दीन को, इन एक जैसी सैकड़ों भैंसों से, तुमने अपनी ही भैंस को किस तरह पहचान लिया ?
जागरण महामंत्र है
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