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________________ दिखाई पड़ रहा है। चैतन्य प्रगट हुआ है। तो जो प्रगट हुआ है वह मूल में भी होना ही चाहिए, अन्यथा प्रगट कैसे होगा? तुमने आम का बीज बोया, आम का वृक्ष प्रगट हुआ; उसमें आम लग गए। तुमने नीम का बीज बोया, नीम प्रगट हुई; उसमें निमोलियां लग गईं। जो बीज में है, वही प्रगट होता है, वही लगता है। इतना चैतन्य दिखाई पड़ता है दुनिया में, इतनी चेतना दिखाई पड़ती है, विभिन्न चेतना के रूप दिखाई पड़ते हैं तो जो मूल संघट है इस अस्तित्व का, उसमें चैतन्य छुपा होना चाहिए। इसलिए विद्युत कहना उचित नहीं, आत्मा कहना ज्यादा उचित है। आत्म-विद्युत कहो, मगर चैतन्य को वहां डालना ही होगा। जो दिखाई पड़ने लगा है, वह आया है तो मूल में छिपा रहा होगा। __ 'जैसे विचार करने से वस्त्र तंतुमात्र ही होता है, वैसे ही विचार करने से यह संसार आत्म-मात्र है।' 'जैसे ईख के रस से बनी हुई शक्कर ईख के रस से व्याप्त है, वैसे ही मुझसे बना हुआ संसार मुझसे भी व्याप्त है।' जैसे तुमने ईख से शक्कर निकाल ली तो शक्कर में ईख का रस व्याप्त है, ऐसे ही चैतन्य में परमात्मा व्याप्त है, मुझमें परमात्मा व्याप्त है, तुममें परमात्मा व्याप्त है, और तुम परमात्मा में व्याप्त हो। 'आत्मा के अज्ञान से संसार भासता है...!' इसे समझना। यह बहुत महत्वपूर्ण है। 'आत्मा के अज्ञान से संसार भासता है और आत्मा के ज्ञान से नहीं भासता...।' गैस्टॉल्ट बदल जाता है, देखने का ढंग बदल जाता है। '...जैसे कि रस्सी के अज्ञान से सांप भासता है और उसके ज्ञान से वह नहीं भासता है।' रात के अंधेरे में देख ली रस्सी, घबड़ा गए, समझा कि सांप है। भागने लगे, लकड़ियां ले कर मारने लगे। फिर कोई दीया ले आया, तो लकड़ियां हाथ से गिर जाएंगी, भय विसर्जित हो जाएगा। . प्रकाश में दिखाई पड़ गया ः सांप नहीं है, रस्सी है। रस्सी को रस्सी की तरह न देख पाने के कारण सांप था। सांप था नहीं-सिर्फ आभास था। आत्मा को आत्मा की तरह न देख पाने के कारण संसार है। जिसने स्वयं को जाना, उसका संसार मिट गया। इसका यह अर्थ नहीं कि द्वार-दरवाजे, दीवाल, पहाड़-पत्थर खो जाएंगे। न, ये सब होंगे; लेकिन ये सब एक में ही लीन हो जाएंगे। ये एक की ही विभिन्न तरंगें होंगी, फेन, बुदबुदे! जिसने स्वयं को जाना, उसका संसार समाप्त हुआ। और जिसने स्वयं को नहीं जाना, उसका संसार कभी समाप्त नहीं होता। संसार छोड़ने से तुम स्वयं को न जान सकोगे। लेकिन स्वयं को जान लो तो संसार छूट गया। ___ त्याग की दो धाराएं हैं। एक धारा है जो कहती है कि संसार को छोड़ो तो तुम स्वयं को जान सकोगे। दूसरी धारा है, जो कहती है : स्वयं को जान लो, संसार छूटा ही है। पहली धारा भ्रांत है। संसार को छोड़ने से नहीं तुम स्वयं को जान सकोगे। क्योंकि संसार के छोड़ने में भी संसार के होने का भ्रम बना रहता है। समझो थोड़ा। रस्सी पड़ी है, सांप दिखाई पड़ा। कोई तुमसे मिलता है, वह कहता है : तुम सांप का भाव छोड़ दो तो तुम्हें रस्सी दिखाई पड़ जाएगी। तुम कहोगेः ‘सांप का भाव छोड़ कैसे दें? सांप summonsoomarwaroramananewwwwwwwwwsarmananews | 188 । अष्टावक्र: महागीता भाग-1 | -
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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