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देहाभिमान — तो देह हो गए। कहा 'मैं देह हूं', तो देह हो गए। ब्रह्माभिमान — कहा कि मैं ब्रह्म हूं, तो ब्रह्म हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो । सपने में तुमने घोड़े से जोड़ लिया, तुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो । जस के तस ! वैसे के वैसे ! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है।
इसलिए इस तरह के प्रश्न अर्थहीन हैं। और इस तरह के प्रश्न पूछने में समय मत गंवाओ। और इस तरह के प्रश्नों के जो उत्तर देते हैं, वे तुमसे भी ज्यादा नासमझ हैं।
झेन फकीर बोकोजू के जीवन में उल्लेख है : एक दिन सुबह उठा और उठकर उसने अपने प्रधान शिष्य को बुलाया और कहा कि सुनो, मैंने रात एक सपना देखा । उसकी तुम व्याख्या कर सकोगे?
उस शिष्य ने कहा कि रुकें। मैं थोड़ा पानी ले आऊं, आप हाथ-मुंह पहले धो लें।
वह मटकी में पानी भर लाया और गुरु का उसने हाथ-मुंह धुलवा दिया। वह हाथ-मुंह धुला रहा था, तभी दूसरा शिष्य पास से गुजरता था। गुरु ने कहा, सुनो! मैंने रात एक सपना देखा। तुम उसकी व्याख्या करोगे ?
उसने कहा कि ठहरो, एक कप चाय ले लेना आपके लिए अच्छा रहेगा । वह एक कप चाय ले आया। गुरु खूब हंसने लगा। उसने कहा कि अगर तुमने व्याख्या की होती मेरे सपने की, तो मारकर बाहर निकाल देता ।
सपने की क्या व्याख्या ? अब देख भी लिया, जाग भी गए, अब छोड़ो पंचायत !
शिष्यों ने बिलकुल ठीक उत्तर दिए । वह कसौटी थी। वह परीक्षा थी उनकी। वह परीक्षा का क्षण आ गया था। एक शिष्य पानी ले आया कि आप हाथ-मुंह धो लें। सपना गया, अब मामला खत्म करें ! अब और व्याख्या क्या करनी ? सपना सपना था, बात खत्म हो गई; व्याख्या क्या करनी ? - व्याख्या सत्य की होती है, सपनों की थोड़े ही । झूठ की क्या व्याख्या हो सकती है ? जो हुआ ही नहीं, उसकी क्या व्याख्या हो सकती है? इतना काफी है कि जान लिया सपना था, अब हाथ-मुंह धो लें। अब बाहर आ ही जाएं, जब आ ही गए।
दूसरे युवक ने भी ठीक किया कि चाय ले आया, कि हाथ-मुंह तो धुल गया लेकिन लगता है थोड़ी नींद बाकी है, आप ठीक से चाय पी लें, बिलकुल जाग जाएं।
यही मैं तुमसे कहता हूं : हाथ-मुंह धो लो, चाय पी लो ! तुम कभी अलग हुए नहीं । अलग होने का कोई उपाय नहीं है।
फिर पूछते हैं : 'अंश का मूल से पुनर्मिलन, कभी न बिछुड़ने वाला मिलन संभव है या नहीं ?'
जब तुम बिछुड़े ही नहीं तो मिलन की बात ही बकवास है। इसीलिए तो अष्टावक्र कहते हैं कि मुक्ति का अनुष्ठान मुक्ति का बंधन है। वे क्या कह हैं? वे यह कह रहे हैं कि जिससे तुम कभी अलग ही नहीं हुए, उससे मिलने की योजना ? तो हद हो गई पागलपन की ! तो यह योजना ही तुम्हें मिलने न देगी।
थोड़ा सोचो! अगर तुम अपने घर के बाहर कभी गए ही नहीं, तो घर लौटने की चेष्टा तुम्हें जाग न देगी।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1