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________________ तीसरा प्रश्नः हम ईश्वर-अंश हैं और अविनाशी भी। कृपया बताएं कि यह अंश मूल से कब, क्यों और कैसे बिछड़ा? और अंश का मल से पुनर्मिलन, कभी न बिछड़ने वाला मिलना संभव है या नहीं? यदि संभव है तो | ते खें फर्क! अभी एक प्रश्न था वह अंश को मूल में मिला देने की कृपा करें कि । अनुभव का था। यह प्रश्न शास्त्रीय बार-बार इस कोलाहाल में आकर भयभीत न है: 'हम ईश्वर-अंश हैं और अविनाशी भी!' होना पड़े। __ यह तुम्हें पता है? सुन लिया, पढ़ लिया और अहंकार को तृप्ति देता है—मान भी लिया। इससे बड़ी अहंकार को तृप्ति देने वाली और क्या बात हो सकती है कि हम ईश्वर-अंश हैं? ईश्वर हैं, ब्रह्म हैं, अविनाशी हैं! यही तो तुम चाहते हो। यही तो अहंकार की खोज है। यही तो तुम्हारी गहरी से गहरी आकांक्षा है कि अविनाशी हो जाओ, ईश्वर-अंश हो जाओ, ब्रह्मस्वरूप हो जाओ, सारे जगत के मालिक हो जाओ! ___'हम ईश्वर-अंश हैं और अविनाशी भी।' ऐसा तुम्हें पता है ? अगर तुम्हें पता है तो प्रश्न की कोई जरूरत नहीं। अगर तुम्हें पता नहीं है तो यह बात लिखना ही व्यर्थ है, फिर प्रश्न ही लिखना काफी है। - 'कृपया बताएं कि यह अंश मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?' ___ ये पांडित्य के प्रश्न हैं। कब?–समय, तारीख, तिथि चाहिए। क्या करोगे? अगर मैं तिथि भी बता दूं, उससे क्या अंतर पड़ेगा? संवत बता दूं, समय बता दूं कि ठीक सुबह छह बजे फला-फलां दिन-उससे क्या फर्क पड़ेगा? उससे तुम्हारे जीवन में क्या क्रांति होगी, तुम्हें क्या मिलेगा? 'कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?' अगर तुम्हें पता है कि तुम ईश्वर-अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता है ? अंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई हो; बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने . का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें-सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है। 'मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?' बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोए, तुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्यों, कैसे, कब हुए-बहुत मुश्किल की बात है। 'क्यों घोड़े हुए?' हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? घोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहीं; सिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थे, याद रखना। हालांकि तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं : जिस बात से भी तुम अपने मैं-भाव को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे। जागो और भोगो 151 - - -
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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