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लगते हैं कमरे की आखिरी पंक्ति तक पहुंचने में।
विद्यार्थी सजग होकर बैठ गये। उसने बोतल खोली। बोतल खोलते ही उसने जल्दी से अपनी नाक पर रुमाल रख लिया। अमोनिया गैस! पीछे हटकर खड़ा हो गया। दो सेकेंड नहीं बीते होंगे कि पहली पंक्ति में एक आदमी ने हाथ उठाया, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने; फिर दूसरी पंक्ति में हाथ उठे, फिर तीसरी पंक्ति में। पंद्रह सेकेंड में पूरी क्लास में अमोनिया गैस पहुंच गई। और अमोनिया गैस उस बोतल में थी ही नहीं; वह खाली बोतल थी।
धारणातो परिणाम हो जाता है। मान लिया तो हो गया! जब उसने कहा, अमोनिया गैस इसमें है ही नहीं, तब भी विद्यार्थियों ने कहा कि हो या न हो, हमें गंध आई। गंध मान्यता की आई। गंध जैसे भीतर से ही आई, बाहर तो कुछ था ही नहीं। सोचा तो आई। __ मैंने सुना है, एक अस्पताल में एक आदमी बीमार है। एक नर्स उसके लिए रस लेकर आईसंतरे का रस। उस रस लाने वाली नर्स के पहले ही दूसरी नर्स उसे एक बोतल दे गई थी कि इसमें अपनी पेशाब भरकर रख दो-परीक्षण के लिए। वह थोड़ा मजाकिया आदमी था। उसने उस बोतल में संतरे का रस डाल कर रख दिया। जब वह नर्स लेने आई बोतल तो वह जरा चौंकी, क्योंकि यह रंग कुछ अजीब-सा था। तो उस आदमी ने कहा, तुम्हें भी हैरानी होती है, रंग कुछ अजीब-सा है। चलो मैं इसे एक दफा और शरीर में से गुजार देता है,रंग ठीक हो जायेगा-वह उठाकर बोतल और पी गया। कहते हैं, वह नसे बेहोश होकर गिर पड़ी। क्योंकि उसने तो यही सोचा कि यह आदमी पेशाब पीये जा रहा है। फिर से कहता है कि एक दफा और निकाल देते हैं शरीर से तो रंग सधर जायेगा. ढंग का हो जायेगा। यह आदमी कैसा है। लेकिन वहां केवल संतरे का रस था। अगर पता हो कि संतरे का ही रस है तो कोई बेहोश न हो जायेगा; लेकिन यह बेहोशी वास्तविक है। यह मान्यता की है। ___तुम जीवन में चारों तरफ ऐसी हजारों घटनाएं खोज ले सकते हो, जब मान्यता काम कर जाती है, मान्यता वास्तविक हो जाती है। ___ मैं शरीर हूं, यह जन्मों-जन्मों से मानी हुई बात है; मान ली तो हम शरीर हो गये। मान ली तो हम क्षुद्र हो गये। मान ली तो हम सीमित हो गये। ____ अष्टावक्र का मौलिक आधार यही है कि यह आत्म-सम्मोहन है, आटो-हिप्नोसिस है। तुम शरीर हो नहीं गये हो, तुम शरीर हो नहीं सकते हो। इसका कोई उपाय ही नहीं है। जो तुम नहीं हो, वह कैसे हो सकते हो? जो तुम हो, तुम अभी भी वही हो। सिर्फ झूठी मान्यता को काट डालना है।
'उस पाश को, मैं बोध हूं, इस ज्ञान की तलवार से काटकर तू अभी सुखी हो जा।' ज्ञानखंगेन तत् निष्कृत्य त्वं सुखी भव! अभी सुख को जगा ले, क्योंकि सारे दुख हमारे उस मान्यता के पिछलग्गू हैं कि हम देह हैं।
बुद्धं भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है। रामकृष्ण भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है। रमण भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है। __ रमण जब मरे तो उन्हें कैंसर था। चिकित्सक बहुत चकित थे। बड़ी कठिन बीमारी थी। बड़ी पीड़ादायी बीमारी थी। लेकिन रमण वैसे ही थे जैसे थे; जैसे बीमारी ने कोई भेद ही नहीं लाया; कहीं कोई अंतर ही नहीं पड़ा। चिकित्सक परेशान थे कि यह असंभव है। यह हो कैसे सकता है! मौत द्वार
साधना नहीं-निष्ठा, श्रद्धा