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________________ अष्टावक्र के हृदय में स्थिर हो जाता है : ज्ञान कैसे मिले? ओशो ने असंख्य किताबें पढ़ी हैं। ज्ञान केवल शब्द में बंधा हुआ नहीं होता। सफेद कागज पर छपे काले अक्षर ज्ञान नहीं हैं। गंभीर वाणी में दिया गया उपदेश ज्ञान नहीं है। ज्ञान किसे कहते हैं, इस प्रश्न का उत्तर देने का अधिकार ओशो को है। वे ज्ञान के मर्म तक जब ओशो अष्टावक्र गीता की बात करते हैं, तब अष्टावक्र को पूछे हुए जनक के प्रश्न का हवाला तो देते ही हैं, परंतु उससे प्रश्न तो उनके हृदय में भी बैठ जाता है। मुक्ति कैसे मिलती है? जनक का यह प्रश्न ओशो से उनकी अट्ठावन वर्ष की आयु में कई बार पूछा गया होगा, लेकिन जनक जैसे मुक्ति के समीप पहुंचे हुए शिष्य उन्हें कहां से मिलते? इसीलिए तो वे सदियों पहले पूछे हुए प्रश्न की ध्वनि को फिर सजीव करते हैं। वैराग्य कैसे प्राप्त हो? ओशो के एक शब्द पर संन्यास लेने वाले और एक ही शब्द पर गेरुवे वस्त्र त्याग देने वाले जिज्ञासुओं का भी यही प्रश्न है। ओशो इस प्रश्न का उतनी ही उत्कटता से मंथन करते हैं जितना अतीत में अष्टावक्र ने किया था। ___ अष्टावक्र संहिता को ओशो महागीता कहते हैं। कृष्णार्जुन-संवाद मनुष्य और ईश्वर के बीच का संवाद है। जनक-अष्टावक्र का संवाद दो जाग्रत, सतर्क व्यक्तियों के बीच का संवाद है। ओशो आजीवन इसी जाग्रत अवस्था से अपनी बात करते रहे हैं। अष्टावक्र की तरह वे सीधे मूल तत्व पर आकर अपनी बात करते रहे हैं। इसीलिए अष्टावक्र संहिता उनके वचनों में सबसे अधिक महत्व रखती है। जनक जैसे महाज्ञानी विनम्रता से प्रश्न करें और अष्टावक्र जैसा बालक उत्तर दे उसे ओशो महागीता का नाम देते हैं। कृष्ण की गीता में से कोई भी अपनी पसंद का अर्थ निकाल सकता है, लेकिन अष्टावक्र इस दृष्टि से कैसे भिन्न हैं, यह समझाते हुए ओशो कहते हैं: ____ “अष्टावक्र का संदेश सुस्पष्ट है...ऐसा सुस्पष्ट, खुले आकाश जैसा वक्तव्य, जिसमें बादल हैं ही नहीं, तुम कोई आकृति देख न पाओगे। आकृति छोड़ोगे सब, बनोगे निराकर, अरूप के साथ जोड़ोगे संबंध तो अष्टावक्र समझ में आयेंगे। अष्टावक्र को समझना चाहो तो ध्यान की गहराई में उतरना होगा. कोई व्याख्या से काम होने वाला नहीं है।" और ध्यान से अष्टावक्र का मतलब जप नहीं है। "अष्टावक्र कहते हैं : तुम कुछ भी करो, वह ध्यान न होगा। कर्ता जहां है वहां ध्यान कैसा? जब तक करना है तब तक भ्रांति है। जब तक करने वाला मौजूद है तब तक अहंकार मौजूद है।" । ढाई हजार पृष्ठ भर सकें इतने शब्द ओशो अष्टावक्र पर बोले हैं। उसका उपसंहार करते हुए उन्होंने जो कहा है उसी में इस महाग्रंथ का निचोड़ है। इसमें पंद्रह प्रवचन हैं। जिस पराकाष्ठा पर वे पहुंचते हैं उस क्षण के पास हम अभी ही आ जायें तो इन प्रवचनों का अर्थ समझ में आ जाएगा "वही है मरकजे-काबा, वही है राहे-बुतखाना . जहां दीवाने दो मिलकर सनम की बात करते हैं "अष्टावक्र और जनक, दो दीवानों की बात हमने सुनी। उनकी चर्चा ने एक अपूर्व तीर्थ का निर्माण किया। उसमें हमने बहुत डुबकियां लगायीं। अगर धुल गये, अगर स्वच्छ हो गये, तो सारा गुण गंगा का है। अगर न धुले, अस्वच्छ के अस्वच्छ रह गये, तो सारा दोष अपना है। “यह एक अपूर्व यात्रा थी। एक दृष्टि से बहुत लंबी-महीनों-महीनों तक इसमें हमने डुबकियां
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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