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________________ चउदिसि गुरुग्गहो इह, अहुट्ठ तेरस करे सपरपक्खे; अणणुन्नायस्स सया, न कप्पए तत्थ पविसेउं ॥ ३१ ॥ __ अब यहाँ चारों दिशाओं में गुरु का अवग्रह स्वपक्ष के विषय में ३॥ हाथ है, और परपक्ष के विषय में १३ हाथ है। इसलिए उस अवग्रह में गुरु की अनुमति नही हो ऐसे साधुको कभी प्रवेश करना उचित नहीं । ॥३१॥ पण तिग बारस दुग तिग, चउरो छट्ठाण पय इगुणतीसं; गुणतीस सेस आवस्सयाइ सव्वपय अडवन्ना ॥ ३२ ॥ १७ वाँ अक्षर द्वार सुगम होने के कारण नहीं कहा, और १८ वा पद द्वार, इस प्रकार (वंदन के आगे कहे जाने वाले ६ स्थान के विषय में अनुक्रम से) ५-३-१२-२-३-४ इन छ स्थानो में २९ पद है । तथा शेष रहे हुए अन्य भी 'आवस्सिआए' इत्यादि २९ पद हैं । जिससे सर्व पद ५८ हैं ॥३२॥ इच्छा य अणुन्नवणा, अव्वाबाहं च जत्त जवणा य; अवराह-खामणा वि य, वंदण-दायस्स छट्ठाणा ॥ ३३ ॥ - इच्छा, अनुज्ञा, अव्याबाध, संयमयात्रा, देहसमाधि और अपराधखामणा ये वंदन करनेवाले शिष्य के ६ स्थान है ॥३३॥ ३२ भाष्यत्रयम्
SR No.032108
Book TitleBhashya Trayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages66
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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