SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानादि तीन की स्थापना करना (ज्ञान-दर्शन और चारित्र के उपकरण को गुरु के रुप में मानकर सद्भूत स्थापना करना) ॥२८॥ अक्खे वराडए वा, कढे पुत्थे अ चित्तकम्मे अ; सब्भाव-मसब्भावं, गुरुठवणा-इत्तरावकहा ॥ २९ ॥ ___ गुरु की स्थापना अक्षमें, वराटक-कोडेमें, काष्टमें, पुस्तक में, और चित्रकर्म (मूर्तिरुप आकृति मैं) में, की जाती है, वह सद्भाव और असद्भाव स्थापना रूप दो प्रकार की है। पुनः (दोनों स्थापनाएँ) इत्वर और यावत्कथित दो-दो प्रकार की है ॥२९॥ गुरुविरहमि ठवणा, गुरूवएसोवदंसणत्थं च; जिणविरहमि जिणबिंब सेवणा-मंतणं सहलं ॥ ३० ॥ साक्षात् गुरु की अनुपस्थिति में स्थापना की जाती है। और वह स्थापना गुरु की आज्ञा हेतु होती है। (इसलिए गाथा में बताए गये च शब्द से स्थापना विना धर्मानुष्ठान नहीं करना) (उसके दृष्टान्त) जब साक्षात् जिनेश्वर का विरह होता है तब जिनेश्वरकी प्रतिमाकी सेवा और आमंत्रण सफल होता है। (वैसे ही गुरु के विरह में उनकी प्रतिमा स्थापना समक्ष किये गये धर्मानुष्ठान सफल होते है) ॥३०॥ श्री गुरूवंदन भाष्य
SR No.032108
Book TitleBhashya Trayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages66
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy