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________________ भावार्थ : जिननाम, सुरद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक देवायु नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेन्द्रिय, स्थावरनाम, आतपनाम, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंडक संस्थान, सेवा संघयण, अनंतानुबंधी चतुष्क, मध्यम संस्थान चतुष्क, मध्यम संघयण चतुष्क, अशुभ विहायोगति, नीच गोत्र, स्त्री वेद, दुर्भगत्रिक, स्त्यानर्द्धित्रिक, उद्योत, तिर्यंचद्विक, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, मनुष्यद्विक औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराच संघयण ये 55 प्रकृतियाँ, बंधस्वामित्व बताने में सहायक होने से यहाँ क्रमशः बतलाई गई हैं ॥३-४॥ सुरइगुणवीसवज्जं, इगसउओहेण बंधहिं निरया; । तित्थ विणा मिच्छि सयं, सासणि नपुचउविणा छनुई ॥५॥ भावार्थ : बंध योग्य 120 प्रकृतियों में से सुरद्विक आदि 19 प्रकृतियों को छोड़कर नारक जीव 101 प्रकृतियों को सामान्य से बाँधते हैं मिथ्यात्वगुणस्थानक में रहा नारक जीव तीर्थंकर नामकर्मो को छोड १०० प्रकृतिओं को तथा सास्वादनगुणस्थानक में नपुंसक चतुष्क को छोड ७६ प्रकृतियों को बांधते है ॥५॥ विणुअणछवीस मीसे, बिसयरि सम्ममि जिणनराउजुआ। इअ रयणाइसु भंगो, पंकाइसु तित्थयर-हीणो ॥ ६ ॥ कर्मग्रंथ
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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