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________________ पज्जमणु बायरग्गी, वेमाणियभवणनिरयवंतरिया; । जोइस चउ पणतिरिया, बेइंदिय तेइंदिय भू आऊ ॥ ४१ ॥ वाऊ वणस्सइच्चिय, अहिया अहिया कमेणिमे हुंति; । सव्वेवि इमे भावा, जिणा मए णंतसो पत्ता ॥ ४२ ॥ गाथार्थ : पर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त बादर, अग्निकाय, वैमानिक, भवनपतिदेव, नारक, व्यंतर, ज्योतिषदेव, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, पृथ्वीकाय अप्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, क्रमशः अधिक-अधिक हैं, ये सभी भाव मैंने अनंत बार प्राप्त किए हैं ॥४१॥-॥४२॥ संपइ तुम्ह भत्तस्स, दंडग पय भमण भग्गहिययस्स; । दंडतिय-विरय-सुलहं, लहु मम दितु मुक्खपयं ॥ ४३ ॥ गाथार्थ : इन दंडक पदों में परिभ्रमण करने से थकेमांदे इस भक्त को, तीन दंड़ की विरति से सहज मिले ऐसा मोक्षपद शीघ्र प्रदान करें ॥४३॥ सिरिजिणहंस मुणीसर, रज्जे सिरिधवलचंदसीसेण; । गजसारेण लिहिया, एसा विन्नत्ति अप्पहिया ॥ ४४ ॥ गाथार्थ : श्री जिनहंस आचार्य भगवंत के शासन काल में आत्महित करनेवाली यह विज्ञप्ति श्री धवलचंद्र मुनि के शिष्य श्री गजसारमुनि के द्वारा लिखी गई है ॥४४॥ श्री दंडक प्रकरण
SR No.032106
Book TitleDandak Laghu Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages26
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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