SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारस मुहुत्त जहन्ना, वेयणिए अट्ठ नामगोएसु, । सेसाणंतमुहत्तं, एयं बंधट्टिइ-माणं ॥ ४२ ॥ वेदनीय कर्म की जधन्य स्थिति बन्ध १२ मुहूर्त, नाम तथा गोत्र कर्म का ८ मुहूर्त, और शेष (पाच) कर्मों का अन्तमुहूर्त यह स्थितिबंध का प्रमाण है ॥ ४२ ॥ संतपय-परूवणया, दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य, । कालो अ अंतरं भाग, भावे अप्पाबहुं चेव ॥ ४३ ॥ सत्पदप्ररुपणा, द्रव्यप्रभाण और क्षेत्र, स्पर्शना, काल तथा अंतर, भाग, भाव, अल्पबहुत्व निश्चय (से अनुयोग द्वार) हैं ॥ ४३ ॥ संतं सुद्धपयत्ता, विज्जतं खकुसुमव्व न असंतं, । मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परूवणा मग्गणाइहिं ॥ ४४ ॥ "मोक्ष' सत् है, शुद्ध पद होने से विद्यमान है, आकाश के फूल के समान अविद्यमान नहीं है । "मोक्ष" इस प्रकार का पद है और मार्गणा आदि द्वारा इसका विचार होता है ॥ ४४ ॥ गइ इंदिए अकाए, जोए वेए कसाय नाणे य, । संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सन्नि आहारे ॥ ४५ ॥ ___ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या और भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी तथा आहार (ये १४ मार्गणाएँ हैं) ॥ ४५ ॥ र-नवतत्त्व
SR No.032105
Book TitleJeevvichar Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad Jain
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages34
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy