SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी कंपायमान हो गया था, वैसे श्री वीर प्रभु भी कर्म से पीड़ित होने पर भी इस प्रकार रह रहे हैं। शक्रेन्द्र ने उनकी आपत्ति को दूर करने के लिए सिद्धार्थ व्यंतर को नियुक्त किया हुआ है। परंतु वह तो मात्र गोशाला को ही उत्तर देने में ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। अन्य समय तो वह उपस्थित भी रहता नहीं है। प्रभु के चरणों में बड़े बड़े सुरेन्द्र भी आकर लोट जाते हैं और किंकर होकर रहते हैं। प्रभु की कर्म जन्य पीड़ा में इन्द्रादिक उदास होकर रहते हैं। जिनके नाम के स्मरण से दुष्ट उपद्रव भी द्रवित हो जाते हैं, उन प्रभु को उल्टे अति क्षुद्र लोक उपद्रव करते हैं, उसकी पुकार किसके आगे करें ? जगत् के उन कृतघ्न सुकृतों को धिक्कार हैं कि जो स्वामी से उत्पन्न हुए हैं, फिर भी ऐसे में आए स्वामी की रक्षा करते नहीं है। सम्पूर्ण जगत् का रक्षण और क्षय करने का अपने में बल होने पर भी उसका किंचित् भी उपयोग करते नहीं। क्योंकि “संसार सुख में आसक्त पुरूष ही अपने बल का तथा प्रकार से फल प्राप्त करना चाहते हैं।" आश्रयस्थान न मिलने पर भी ठंड एवं धूप को सहन करते हुए प्रभु छः महिने तक धर्म जागरण करते हुए उस भूमि में रहे। शून्यागार या वृक्ष तल में रहकर धर्मध्यान में परायण ऐसे प्रभु ने नवाँ चातुर्मास निर्गमन किया। (गा. 53 से 66) वहाँ से विहार करके प्रभु गोशाला के साथ सिद्धार्थपुर में आये। वहाँ से कूर्मग्राम की ओर चल दिये। एक तिल के पौधे को देखकर गोशाला ने प्रभु से पूछा कि- “स्वामी! यह तिल का पौधा फलीभूत होगा या नहीं? भवितव्यता के योग से प्रभु स्वयं मौन छोड़कर बोले, 'हे भद्र! यह तिल का पौधा फलित होगा। पुष्प के सात जीव जो अन्य पौधे में रहे हए हैं, वे च्यव कर इस पौधे में तिल की फली में उतने ही तिल रूप में उत्पन्न होंगे। प्रभु के इन वचनों पर गोशाला को श्रद्धा न होने से उसने उस तिल के पौधे को हाथ से उखाड़ कर अन्यत्र रख दिया। उस समय 'प्रभु की वाणी असत्य न हो' ऐसा विचार करके समीपस्थ किसी देवता ने तुरंत ही वहाँ मेघवृष्टि की विकुर्वणा की। इससे वहाँ की जमीन और वह तिल का उखड़ा पौधा गीला हो गया। इतने में तो वहाँ से कोई गाय निकली। उसके खुर से वह पैधा दब गया। वह उस आर्द्र भूमि में घुस गया। तब पृथ्वी से मिल जाने से एकमेक हो गया। इससे उसके मूल गहरे में चले गये और उसमें नये अंकुर पैदा हो गये। अनुक्रम से उस फली में प्रभु के कथनानुसार पुष्प के सात जीव तिल रूप में उत्पन्न होकर बढ़ने लगे। भगवंत वहाँ से दुष्ट त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 77
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy