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________________ घूमता वह राजगृही नगर में आया। जिस प्रदेश को प्रभु ने अलंकृत किया था, उसी शाला में ही वह गोशालक सिंह के पास शृगाल की तरह एक कोने में आकर रहने लगा। प्रभु के मासक्षमण का पारणा होने से वे विजय श्रेष्ठी के घर करपात्र में वहरने आये। श्रेष्ठ बुद्धिमान् विजय श्रेष्ठी ने स्वयं विपुल भक्तिपूर्वक सम्यक रूपेण आहार से विधिपूर्वक प्रभु को प्रतिलाभित किया। उस समय आकाश में 'अहो दानं' ऐसी आघोषणा करके देवताओं ने उसके घर में रत्नवृष्टि आदि पांच दिव्य प्रगट किये। यह हकीकत सुनकर गोशाला ने सोचा कि 'ये मुनि कोई सामान्य नहीं हैं, क्योंकि अन्न देने वाले के घर में भी इतनी समृद्धि हो गई। इसलिए मैं तो यह चित्रपट का पाखंड छोड़कर इन मुनि का ही शिष्य हो जाऊं। क्योंकि ये गुरु निष्फल नहीं होंगे। गोशालक तो यह विचार कर ही रहा था, इतने में तो प्रभु पारणा करके पुनः शाला में आकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। गोशाला प्रभु को नमन करके बोला- 'हे भगवन! मैं सुज्ञ होने पर भी प्रमाद के कारण अभी तक आप जैसे महामुनि का प्रभाव नहीं जान सका, परंतु अब मैं आपका शिष्य होऊँगा। आज से आप एक ही शरण हैं।' इस प्रकार कहकर उसने वैसा ही किया, तो भी प्रभु तो मौन ही रहे। गोशाला भिक्षा मांग कर प्राणवृत्ति करता हुआ अपनी बुद्धि से प्रभु का शिष्य होकर रात दिन प्रभु का पल्ला छोड़ता नहीं था। दूसरे मासक्षमण पर प्रभु वहरने निकले तब आनंद नामक एक गृहस्थ ने खाद्य वस्तु द्वारा प्रतिलाभित किया। तीसरे मासक्षमण पर सुनंद नाम के गृहस्थ ने सर्वकामगुण नाम के आहार द्वारा प्रतिलाभित किया। गोशाला भी भिक्षा के अन्न से उदरपोषण करके भगवंत श्री महावीर प्रभु को अहर्निश सेवने लगा। (गा. 373 से 390) ____ एक बार कार्तिक महिने की पूर्णिमा को गोशाला ने हृदय में विचार किया कि, ये बड़े ज्ञानी हैं, ऐसा सुनता हूँ, तो आज मैं इसके ज्ञान की परीक्षा करूं।' पश्चात् उसने पूछा 'हे स्वामी! आज तो प्रत्येक गृह में वार्षिक महोत्सव हो रहा है, तो मुझे आज भिक्षा में क्या मिलेगा? वह कहो।' उस समय वह सिद्धार्थ प्रभु के शरीर में प्रवेश करके बोला कि 'अरे भद्र! खट्टा हो गया कोद्रक और कूर का घान्य एवं दक्षिणा में एक खोटा रुपिया मिलेगा।' यह सुनकर गोशाला दिन के प्रारंभ से ही उत्तम भोजन के लिए श्वान की तरह घर घर धूमने लगा, तथापि किसी भी स्थान पर उसे कुछ भी मिला नहीं। जब सायंकाल हुआ तब त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 57
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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