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________________ का रक्षण करता नहीं है। अहो! यह इन कुलपति का अतिथि कौन है ? कि जिसके देखते हुए गायें जिसकी झोंपड़ी को खा जाती है। अहो! कैसा स्वार्थ निष्ठपन है ? क्या करें ? यह अतिथिकुलपति को आत्मा के जैसे प्रिय है। उसके भय के कारण हम कुछ भी कठोर वचन बोल नहीं सकते हैं।' ऐसा सोच कर एक बार वे तापस प्रभु पर मन में बहुत मत्सर भाव लाकर कुलपति के पास गए और उपालंभ देते हुए इस प्रकार बोले कि, 'हे कुलपति! आप अपने आश्रम में कैसे ममता रहित मुनि को अतिथि रूप में लाए हो कि उसके अंदर रहने पर भी उसकी झोंपड़ी नष्ट हो गई। वह अतिथि ऐसा अकृतज्ञ, उदासीन, दाक्षिण्यता रहित और आलसी है कि गायों के खाने पर भी उसका रक्षण करता नहीं है। अपनी आत्मा को मुनि मानने वाला कदाच यह अतिथि समता धारण करके गायों को निकालता नहीं, तो क्या गुरुदेव को अर्चन वाले हम मुनि नहीं हैं ?' तापसों के ऐसे वचन सुनकर कुलपति प्रभु के पास आए तो देखा पंख आए पक्षी की भांति वह आश्रम आच्छादन रहित दिखाई दिया। तब सोचा कि ये तापस ईर्ष्या रहित और सत्य बोलने वाले हैं। तब प्रभु को कहा कि हे तात! आपने झोंपड़ी की रक्षा क्यों नहीं की? आपके पिताश्री ने तो यावज्जीवन सर्व आश्रमों की रक्षा की हैं। दुष्टों को शिक्षा करना यह तुम्हारा योग्य व्रत है। पक्षिगण भी अपने घोंसलों का आत्मा की तरह रक्षण करते हैं, तो आप विवेकी होकर भी आश्रम की उपेक्षा क्यों करते हो? इस प्रकार अपने विवेक योग्य शिक्षा देकर यह वृद्ध तापस सिद्धार्थ की मित्रता का स्मरण करते हुए पुनः अपने आश्रम में गया। (गा. 49 से 73) प्रभु ने सोचा कि “मेरे निमित्त से इन सबको अप्रीति होगी। इसलिए सर्व के हितंकर प्रभु ने सोचा कि मेरा यहाँ रहना योग्य नहीं है। इस प्रकार चिंतन करके और अधिक वैराग्य को धारण करके प्रभु ने उस समय पाँच अभिग्रह धारण किये। कभी भी जहाँ अप्रीति हो उसके घर रहना नहीं। २. जहाँ रहे, वहाँ कायोत्सर्ग में ही रहे। ३ प्रायः मौन धारण करके रहे। ४. करपात्र में ही भोजन करे ५. गृहस्थ का विनय न करना। इस प्रकार पांच अभिग्रह लेकर वर्षाऋतु का अर्धमास व्यतीत हो जाने पर भी वहाँ से विहार करके प्रभु अस्थिक नामक गांव में आए। (गा. 74 से 78) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 37
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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