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________________ तृतीय सर्ग श्री महावीर प्रभु का प्रथम के ६ वर्ष का विहार दीक्षा लेने के पश्चात् तीन जगत् के नाथ महावीर प्रभु ने वहाँ से अन्यत्र विहार करने के लिए अपने सहोदर बंधु नंदीवर्धन की और अन्य भी ज्ञातवंश के पुरुषों की आज्ञा ली। प्रभु जब चारित्र रूपी रथ पर आरूढ़ होकर चले, तब उनके पिता का मित्र सोम नामक एक वृद्ध ब्राह्मण वहाँ आकर प्रभु को नमन करके बोला कि 'हे स्वामी! आपने स्वयं की और परकी अपेक्षा बिना सांवत्सरिक दान दिया, इससे सर्व जगत् दारिद्रय रहित हो गया। परंतु मैं एक मंदभाग्य दरिद्री रह गया हूँ। हे नाथ! मैं जन्म से ही महादरिद्री हूँ और अन्यों से प्रार्थना करने के लिए अहर्निश ग्रामोग्राम भटकता रहता हूँ। किसी स्थान पर निर्भर्त्सना होती है, तो कहीं जवाब भी नहीं मिलता और कहीं कोई मुंह मरोड़ता है। यह सब मैं सहन करता हूँ। आपने दान दिया, तब मैं धन की आशा से बाहर घूम रहा था। इससे मुझे आपके वार्षिक दान का पता ही नहीं चला। आपका दान मेरे लिए निष्फल गया। इसलिए हे प्रभु! अभी भी मुझकर कृपा करके दान दीजिए। क्योंकि मेरी पत्नि ने मुझे तिरस्कार करके आपके पास भेजा है। प्रभु करूणा लाकर बोले- हे विप्र! अब तो मैं निस्संग हो गया हूँ। तथापि मेरे स्कंध पर जो वस्त्र है, उसका अर्धभाग तू ले ले। वह विप्र अर्ध वस्त्र लेकर हर्षित होता हुआ अपने घर गया। उसने वस्त्र पल्ले बंधवाने के लिए बुनकर के यहाँ जाकर उसे बताया। उस वस्त्र को देखकर बुनकर ने पूछा कि 'यह वस्त्र तुमको कहाँ मिला? ब्राह्मण ने कहा कि-'श्री महावीर प्रभु के पास से।' बुनकर बोला कि 'हे विप्र! तू वापिस जा और इसका अर्धभाग भी मुनि के पास से ले आने के लिए उनके पीछे पीछे ही फिरता रह। उन मुनि के अटन करते समय किसी स्थान पर काँटे आदि फंसकर वह अर्धभाग भी कहीं गिर जाएगा। वे निस्पृह मुनि पुनः उसको ग्रहण करेंगे नहीं। तब तू उसे लेकर यहाँ आ जाना। उसके दोनों भागों त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 33
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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