SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करें। इसमें अपने को कुछ भी अपवाद नहीं लगेगा। क्योंकि वे विवेक विकल हो गए हैं। पश्चात् अपन राज्य को ग्यारह भागों में बांट कर भोगेंगे। उसके पश्चात् अपना बंदीखाने में पड़ा पिता सैंकड़ों वर्षों तक भले क्यों न जीए?" ऐसा विचार करके उन्होंने अपने विश्वासी पिता को एक दम बांध लिया। दुष्ट पुत्र घर में उत्पन्न होने पर भी विषवृक्ष जैसा ही है।" (गा. 108 से 119) कुणिक ने श्रेणिक को शुकपक्षी भांति पिंजरे में डाल दिया। विशेष उसको खान-पान भी नहीं दिया। इतना ही नहीं वह पापी कुणिक पूर्वभव के वैर से प्रतिदिन प्रातः और सायं उनको सौ सौ चाबुक मारता था। दैव ने सिर पर डाली इस दुर्दशा को श्रेणिक भोग रहा था। क्योंकि “गजेन्द्र समर्थ हो तो भी बेड़ियों से बद्ध होने पर क्या कर सके?" कुणिक श्रेणिक के पास किसी को भी जाने नहीं देता मात्र मातृत्व के दाक्षिण्य से चेल्लणा को जाने से निवार नहीं सकता था। चेल्लणा प्रतिदिन सौ बार घोई सुरा से स्नान करके जाने की त्वरा से आई केशों से ही श्रेणिक के पास बारबार जाती थी एवं अपने केशपाश में पुष्पगच्छ के समान कुल्माष (उड़द) का एक पिंड गुप्त रीति से रखकर यह पतिभक्ता रमणी श्रेणिक को दे देती थी। दुःप्राप्य ऐसा उस कुलमाष का पिंड मिलने पर राजा उसे दिव्य भोजन समान मानता था एवं उस पिंड से अपनी प्राणयात्रा करता था। क्योंकि "क्षुधा नामक रोग अन्नरूप औषध बिना मृत्यु का वरण करता है।' पश्चात् चेल्लणा सौ बार धोई सुरा के बिंदु केशपाश में से नेत्र के अश्रुबिंदु के साथ झारती थी। तथा उस सुरा के बिंदुओं का मेघबिंदु का चातक पान करे वैसे श्रेणिक तृषित होकर पान करता था। इस बिंदुमात्र सुरा के पान करने से राजा चाबुक की मार को भी वेदता नहीं था, साथ ही तृषा से पीड़ित नहीं होता था। (गा. 120 से 130) इस प्रकार श्रेणिक राजा को बांधकर उग्ररूप से राज्य करते हुए कुणिक की पद्मावती नामकी रानी से एक पुत्र हुआ। उसकी बधाई लेकर आए दासदासियों को कुणिक ने वस्त्राभरण से आच्छादित करके कल्पलता के समान कर दिया। तत्पश्चात् स्वयं ने अंतःपुर से जाकर पुत्र को हाथ में लिया। उसके कर कमलों में स्थित वह बालक हँस शावक के सदृश शोभने लगा। नयन रूप 290 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy