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________________ ब्राह्मण की भांति तेरे पिता भी एक वक्त ऐसी ही संपत्तिवाले थे। उसे याद करके मैं रो रही हैं। जबकि तूने तेरे पिता ने समान गुण उपार्जन नहीं किए, इसलिए तेरे पिता की समृद्धि इस ब्राह्मण को प्राप्त हुई। 'निर्गुणी पुत्र पिता की समृद्धि को रख नहीं सकते।' यह सुनकर कपिल बोला, 'माता! मैं अब गुणों को अर्थी होकर अभ्यास करूं तो? माता ने कहा कि, 'यहाँ तो सभी तेरे ईष्यालु लोग हैं, इसलिए यहाँ तुझे कौन पढ़ायेगा? इसलिए यदि तेरी ऐसी ही वृत्ति है तो तू श्रावस्ती नगरी में जा। वहाँ इंद्रदत्त नामका तेरे पिता का मित्र है। हे प्रिय पुत्र! ये सर्व शास्त्रवेत्ता ब्राह्मण विद्या के लिए आए तुझे पुत्रसमान मानकर पितावत् प्रसन्न होकर तुझे कलापूर्ण करेंगे। तब कपिल इंद्रदत्त के पास गया और उनसे विज्ञप्ति की कि 'मुझे शास्त्राध्ययन कराओ, तुम्हारे बिना मुझे अन्य किसी की शरण नहीं है। उपाध्याय बोले- 'वत्स! तू मेरे भाई का ही पुत्र है। ऐसा विद्या का मनोरथ करके तूने तेरे पिता को लज्जित नहीं किया, परन्तु मैं तुझे क्या कहूँ ? निर्धानता के कारण मैं तेरा आतिथ्य करने में समर्थ नहीं हूँ। तू अभ्यास तो कर, परंतु नित्य भोजन कहाँ करेगा? भोजन के बिना पढ़ने का मनोरथ व्यर्थ होगा। क्योंकि भोजन के बिना तो मृदंग भी बजता नहीं है। कपिल बोलापिताजी! भिक्षा के द्वारा मैं भोजन की पूर्ति कर लूंगा। मुंज की कटिमेखला अथवा जनेऊ को धारण करने वाले विप्रबटुकों को 'भिक्षां देहि' इतने शब्दों से भोजन मिलना सिद्ध है। ब्राह्मण यदि हाथी पर भी चढ़ गया हो तो वह भिक्षा मांगते शरमाता नहीं है। भिक्षुक ब्राह्मण राजा की भांति कभी भी किसी के आधीन नहीं है। इंद्रदत्त बोला- वत्स! तपस्वियों को तो भिक्षा श्रेष्ठ है, किन्तु तुझे यदि एक बार भी भिक्षा न मिली तो तू अभ्यास कैसे सकेगा? ऐसा कहकर वह इंद्रदत्त ब्राह्मण उस का हाथ पकड़ कर उसे किसी धनाढ्य शालिभद्र सेठ के ले गया एवं घर के बाहर खड़ा रहा। वहाँ 'ॐ भूर्भव स्वः' इत्यादि गायत्री मंत्र ऊंचे स्वर से बोलकर अपना ब्राह्मण के रूप में परिचय दिया। श्रेष्ठी ने उसे बुलाकर पूछा कि 'तू क्या मांगता है? वह बोला कि 'इस विप्रबटुक को प्रतिदिन भोजन करा दो।' श्रेष्ठा ने उसे भोजन कराना स्वीकार किया। तब कपिल शेठ के घर भोजन करके आकर इंद्रदत्त के पास आकर प्रतिदिन अध्ययन करने लगा। जब वह शालिभद्र सेठ के यहाँ भोजन करने जाता, तब उसे प्रतिदिन एक युवा दासी खाना खिलाती थी। यह युवा विद्यार्थी उपहास्य करते करते उस पर रागी हो गया है। ‘युवा पुरुषों को स्त्री का सानिध्य कामदेव रूपी वृक्ष को दोहद तुल्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 273
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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