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________________ स्वस्थ होकर चिंतन करने लगा कि "धिक्कार है, इन कर कर्म करने वाले तापसों को कि जिन्होंने मुझे जन्म से ही छला है।' पश्चात् साधुओं ने उसे शिक्षा दी कि 'इस संसार में एक धर्म ही शरण करने योग्य है। इसलिए धर्मार्थी सद्बुद्धि वाले पुरुष को देव, गुरु धर्म की परीक्षा करनी चाहिये। जो अट्ठारह दोषों से मुक्त हों वे ही देव, जिसमें दया मुख्य हो वही धर्म और ब्रह्मचारी तथा आरंभ परिग्रह रहित हों, वे ही गुरु कहलाते हैं।' इत्यादि उपदेश द्वारा उन साधुओं ने राजा को प्रतिबोधित किया। इस प्रकार हृदय में कोतरा हो वैसे जिनधर्म उसके चित्त में स्थिर हो गया। पश्चात् उस देव ने प्रत्यक्ष होकर राजा को अर्हत् धर्म में स्थापन करके अतंर्धान हो गया। राजा ने अपने आपको सभा स्थान में ही बैठा पाया। उस दिन से उदयन राजा देवतत्त्व, गुरुतत्त्व से सम्यक् प्रकार से अधिवासित हुआ। (गा. 427 से 444) इसी समय में गांधार नाम का कोई पुरुष शाश्वत प्रतिमा को वंदन करने की इच्छा से वैताढ्यगिरि के पास आया और वैताढ्यगिरि के मूल में उपवास करके बैठ गया। तब शासन देवी ने संतुष्ट होकर उसके मनोरथ को पूर्ण किया। तब कृतार्थ हुए उस पुरुष को देवी ने वैताढ्यगिरि की तलहटी में रख दिया एवं चिंतित मनोरथ को करने वाली एक सौ आठ गोलियों उसे दी। उसमें से एक गोली मुख में रखकर उस विचार किया कि 'श्री वीतभय नगर में श्री देवाधिदेव की प्रतिमा को मुझे वंदन करना है। ऐसा कहते ही वह वीतभय नगर में जा पहुँचा। वहाँ उस कुब्जा दासी ने उसे देवाधिदेव की प्रतिमा की वंदना कराई। वहाँ रहते हुए उसने गांधार के शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न हुई, तब अर्हत् धर्म में वत्सल ऐसी कुब्जा ने उसकी सेवा की। सद्बुद्धि वाले गांधार ने अपना अवसान का नजदीक जानकर कुब्जा को वे सब गोलियां दे दी एवं स्वयं ने दीक्षा ग्रहण कर ली। कुरुपा कुब्जा ने रूप की इच्छा से एक गोली मुख में रखी, इससे वह शीघ्र ही उपपात शय्या में उत्पन्न हुई दिव्य रूप को धारण करने वाली देवी जैसी बन गई। उसके सर्व अंगों का वर्ण सुवर्ण के जैसा हो गया। जिससे लोग उसे सुवर्णगुलिका' इस नाम से बुलाने लगे। पश्चात् उसने दूसरी गोली मुख में डाली और सोचने लगी कि 'यदि योग्य पति न हो तो मेरा यह रूप वृथा है, यहाँ के उदायन राजा तो मेरे पिता समान है, और दूसरे सब तो उसके नौकर है। इसलिए प्रचंडशासन वाले चंडप्रद्योत राजा मेरे पति बने। तब देवता ने प्रद्योत राजा के पास जाकर उसके रूप का वर्णन किया। यह सुनकर प्रद्योत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 271
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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