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________________ तब वह बोला- 'हे मित्र! अब मैं क्या करूं? तब नागिलदेव ने कहा कि - “मित्र! तेरे गृहस्थपन की चित्रशाला में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित भावयति श्री महावीर प्रभु की प्रतिमा बनवा ले। हे बंधु! यह आर्हती प्रतिभा भराने से तुझे आगामी भव में बोधिबीज रूप महाफल की प्राप्ति होगी। क्योंकि रागद्वेष और मोह को जीतने वाले ऐसे श्री अरिहंत की प्रतिमा जो भराता है उसे स्वर्ग और मोक्ष प्रदाता धर्म की प्राप्ति होती है। जिनबिंब भराने वाले को कभी कुत्सित जन्म कुगति, दारिद्र, दौर्भाग्य और अन्य किसी प्रकार का कुत्सितपन प्राप्त नहीं होता।" (गा. 366 से 378) विद्युन्माली देव ने इस प्रकार आज्ञा की स्वीकार करके शीघ्र ही क्षत्रियकुंड गांव में आया। वहाँ उसने कायोत्सर्ग में स्थित हमको देखा पश्चात् उसने महाहिमवान् गिरि पर जाकर गोशीर्ष चंदन को काट कर उस काष्ट की जैसी हमारी मूर्ति जैसी उसने देखी थी वैसी अलंकारयुक्त प्रतिमा उसने बनाई। जातिवंत चंदन काष्ट के स्वयं द्वारा घडित संपुट में जैसे धनाढ्य व्यक्ति भंडार को गुप्त रखने हैं, वैसे उसने प्रतिमा स्थापित रखी। अन्यदा कोई एक जहाज उत्पात योग से छः महीने तक समुद्र में भ्रमण करते हुए उस विद्युन्माली देव को दिखाई दिया। उसने त्वरित गति से उसके उत्पात का संहरण करके उस जहाज के मलिक को वह प्रतिमावाला संपुट यह कहकर अर्पण किया कि, “हे भद्र! तेरा कल्याण हो। तू उपद्रव रहित समुद्र को पार करके सिंधु सौवीर देश में आए वीतभय नगर में जा और उस नगर के चौराहे पर खड़े रहकर ऐसी आघोषणा करना कि, 'यह देवाधिदेव की प्रतिमा कोई ग्रहण करो, ग्रहण करो।' जहाज के स्वामी ने यह बात स्वीकार कर ली। वह उस प्रतिमा के प्रभाव से शीघ्र ही नदी की भांति समुद्र को पार करके किनारे आ पहुँचा। वहाँ से सिंधु सौवीर देश में वीतभय नगर में आकर चौराहे पर खड़े रह कर उसने देव के कथनानुसार आघोषणा की। उस समय तापसों का परमभक्त उदायन राजा कितनेक त्रिदंडी, ब्राह्मण तथा तापस वहाँ आए। वे विष्णु, ब्रह्मा, शंकर आदि अपने अपने इष्टदेव का स्मरण करके कुल्हाड़े द्वारा उस काष्ट से संपुट को तोड़ने लगे। लागों ने भी अपनी रूचि के अनुसार उनकी स्तुति करे करके बहुत से प्रहार किये, परंतु वे लोहे के कुल्हाड़े भी मानो एक थीर के हों वैसे उल्टे टूट गये। ऐसे आश्चर्य में प्रसक्त हुए राजा को वहाँ खड़े खड़े ललाट तपे वैसा मध्याह्न का समय हो गया। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 267
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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