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________________ दूसरे दिन अभयकुमार ने राज्य भंडार ने तीन कोटि रत्न निकालवाये और मार्ग के बीचों बीच उसका ढेर करवाकर पटह बजवाकर ऐसी आघोषणा कराई कि हे लोगों! यहाँ आओ, 'मैं तुमको ये तीन कोटि रत्न देता हूँ।' यह सुनकर बेशुमार लोग वहाँ एकत्रित हो गए। तब उसने कहा कि, 'जो पुरुष सचित जल, अग्नि और स्त्री का सर्वथा त्याग करेगा, उसकी यह रत्नराशि है।' तब वे बोले कि - हे स्वामिन्! ऐसा लोकोत्तर कार्य करने में कौन समर्थ है ? अभयकुमार बोले कि- 'यदि तुममें से कोई ऐसा न हो तो जल, अग्नि एवं स्त्री के सर्वथा त्यागी ये काष्ठ हारी (कठियारा) मुनि की यह रत्न राशि होवे। वे बोले - अरे! ये साधु ऐसे त्यागी और दानपात्र है ? हमने उनका वृथा ही उपहास किया। 'तब अभयकुमार ने आदेश दिया कि- अब कोई भी इन मुनि का तिरस्कार या हास्य करेगा नहीं, लोगों ने यह बात स्वीकार की और अपने अपने स्थान पर गये। (गा. 298 से 304) इस प्रकार बुद्धि का महासागर और पितृभक्ति में तत्पर अभयकुमार निःस्पृह और धर्मास्तिभाव से पिता के राज्य का पालन करता था। स्वयं के धार्मिक प्रवृत्ति करने से प्रजा भी धर्म परायण थी। क्योंकि 'प्रजा और पशुओं की प्रवृत्ति गोप (राजा) के आधीन ही होती है। अभयकुमार जिस प्रकार बारह प्रकार के राजचक्र में जागृत रहता था, उसी प्रकार अप्रमत्त भाव से बारह प्रकार के श्रावक धर्म में भी जागृत रहता था। दोनों लोकों को साधने में जैसे दुर्जय बाहिर शत्रुओं को उसने जीते थे, वैसे ही अंतर शत्रुओं को भी जीता था। (गा. 305 से 308) एक बार श्रेणिक राजा ने अभयकुमार को कहा कि, वत्स! अब तू राज्यभार संभाल तो मैं प्रतिदिन श्री वीरप्रभु की सेवा करके सुख का आश्रय करूं। 'पिता की आज्ञा के भंग से और संसार भीरु अभयकुमार बोला कि'आप जो आज्ञा कर रहे हैं, वह उचित है, परंतु उसके लिए थोड़ी प्रतीक्षा करें। ऐसी बात चल ही रही थी कि इतने में वीरप्रभु उदायन राजा को दीक्षा देकर मरुमंडल में से आकर वहाँ समवसरे। यह समाचार श्रवण करके 'आज मेरे सदनसीब से भगवंत यहाँ पधारे हैं, ऐसा विचार करके हर्षित होकर अभयकुमार प्रभु के समीप आये एवं भक्तिपूर्वक भगवंत को नमन करके स्तुति करने लगे-- 262 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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