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________________ तो अवश्य ही मैं क्षणभर में ही दहन कर डालूंगा।" उनके ऐसे वचनों से घी के सिंचन से अग्नि की भांति अधिक प्रदीप्त हुआ महापद्म तीसरी बाद भी उन सुमंगलमुनि को गिरा देगा । तब वे मुनि सात आठ पगले उसके सामने जाकर तेजोलेश्या द्वारा उस महापद्म को रथ, घोड़ा एवं सारथि सहित जला डालेंगे। पश्चात् उस कर्म की आलोचना करके चिरकाल तक व्रत पालन करके अंत में एक मास का अनशन करके वे मुनि सर्वार्थ सिद्ध विमान में जायेंगे । वहाँ तैतींस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर दीक्षा लेकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। महापद्म दग्ध होकर सातवीं नरक में जायेगा। अनुक्रम से सातों ही नरक में दो दो बार उत्पन्न होगा । पश्चात् समग्र तिर्यञ्च जातियों में बारम्बार उत्पन्न होगा एवं प्रत्येक भव में शस्त्र से अथवा दाह से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त होगा । इस प्रकार अनंतकाल पर्यन्त दुःखदायक भवभ्रमण करके वह राजगृह नगर के बाहर वेश्या होगी । वहाँ सुखपूर्वक शयन करती हुई उस वेश्या को उसके आभूषणों में लुब्ध हुआ कोई कामी पुरुष मार डालेगा। पुनः भी वह उस नगर में वेश्या रूप में उत्पन्न होकर मृत्यु को प्राप्त करेंगे। पश्चात् विंध्यगिरि के मूल में आए चोभल नामक गांव में कोई ब्राह्मण कन्या होगी। उसे कोई ब्राह्मण परणेगा । वहाँ गर्भवती होने पर ससुराल से पीहर आने पर मार्ग में दावानल से दग्ध होने पर वह अग्निकुमार देवताओं में उत्पन्न होगी । वहाँ से पुनः मनुष्य होगी । उस भव में दीक्षा लेगी । वहाँ भी साधुजीवन की विराधना करके फिर से असुरकुमार में उत्पन्न होगा। इस प्रकार बार बार कितनेक मनुष्य करके असुर कुमार आदि में उत्पन्न होगा। पुनः फिर से मनुष्य होकर अतिचार रहित व्रत का पालनकर सौधर्म देवलोक में देव होगा। इस प्रकार सात भव तक मनुष्य भव में मुनि जीवन का पालन करके प्रत्येक कल्प में उत्पन्न होकर अंत में सर्वार्थ सिद्ध विमान में जाएगा । वहाँ से च्यव कर विदेह क्षेत्र में किसी धनाढ्य गृहरूथ का दृढप्रतिज्ञ नामक बुद्धिमान पुत्र होगा। वह विरक्त होकर दीक्षा लेगा, उसी भव में केवलज्ञान उत्पन्न होने पर वह गोशाला के भव से लेकर अपने समस्त भवों को जान लेगा, कि जो गुरु की अवज्ञा और मुनिवध से दूषित हुए थे, अपने सर्व भवों की हकीकत वह अपने शिष्यों को बताएगा और अपने स्वयं के अनुभवी शिष्यों को कहेगे कि सर्वथा गुरु की आज्ञा के बिना कुछ भी कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से उसका दुष्ट अशुभ फल बहुत से भवों तक भोगना पड़ता है। इस प्रकार अपने शिष्यों 1 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 207
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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