SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामी! वह अच्युत देवलोक में से च्यवकर कहाँ उत्पन्न होगा ? और कब सिद्धि का वरण करेगा ? प्रभु ने कहा- "इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में पुंड्रदेश में शतद्वार नामक एक महान् नगर है, उसमें संमुचि नामक राजा की भद्रा नाम की रानी से गोशाला का जीव महापद्म नामक पुत्ररूप से उत्पन्न होगा । वह बहुत बड़ा राजा होगा। पूर्णभद्र और मणिभद्र ये दो उत्तम यक्ष उनका सेनापतित्व करेंगे। इससे प्रजा भाग्य की निधि समान इस राजा का देवसेन ऐसा अन्य गुणनिष्पन्न नाम रखेंगे। उन अद्भुत तेजस्वी को चक्रवर्ती के समान एक श्वेतवर्णी और चार दांतवाला मानो दूसरा ऐरावत हो ऐसा हस्ति प्राप्त होगा । उस पर आरूढ़ होने पर राजा को देखकर हर्षित हुए लोग विमलवाहन ऐसा तीसरा नाम रखेंगे। अन्यदा उसे पूर्व भव के अभ्यास से मुनि पर द्वेष्य कर्म द्वारा मुनियों पर अत्यन्त दुष्ट बुद्धि उत्पन्न होगी । किसी भी मुनि को देखते ही या सुनते ही वह निंदा, ताड़ना, बंधन, हीलना और यहाँ तक कि उनका हनन करना आदि के द्वारा वह उनको पीड़ित करेगा । तब नगर के लोग और मंत्री गण उनको विज्ञप्ति करेंगे कि हे स्वामी! “राजाओं को तो दुष्टों को निग्रह और साधुजनों का पालन करना चाहिए । अतः हे स्वामिन्! इन निरपराधी भिक्षुक और तपस्वी साधुओं की तो आप रक्षा करो और यदि आप रक्षा न भी कर सको तो ठीक परंतु उनका निग्रह किसलिए करते हो ? यदि कोई निरपराधी मुनि ताड़न करने से कोप करेंगे तो वे अपने तेज से आपको और आप के देश को भी जला डालेंगे।" इस प्रकार के उनके वचनों को भी वह मानेगा नहीं । एक वक्त वह रथ में बैठकर उद्यान में क्रीड़ा करने हेतु जाएगा, वहाँ तीन ज्ञान के धारक और जिनको तेजोलेश्या सिद्ध हुई है, ऐसे सुमंगल नाम के मुनि कायोत्सर्ग में रहकर आतापना करते हुए उसे दृष्टिगत होंगे। तब साधु के दर्शन मात्र से ही विरुद्ध हुआ वह राजा निःकारण क्रोध करके रथ के अग्र भाग से ही उन मुनि को गिरा देगा। वे मुनि पुनः खड़े होकर कायोत्सर्ग करेंगे। पुनः वह उनको दूसरी बार पृथ्वी पर गिरा देगा । पुनः वे मुनि कायोत्सर्ग धारण करके अवधि ज्ञान द्वारा देखकर उस राजा को संबोधित करेंगे- “अरे मूढ़ ! तू देवसेन भी नहीं और विमलवाहन भी नहीं परंतु तू तो मंखलि का पुत्र गोशाला है, यह याद कर । उस भव में तो तूने तेरे धर्म गुरु चरम तीर्थंकर वीरप्रभु की अत्यंत आशातना की थी और उनके दो शिष्यों को मदोन्मत्त होकर जला डाला था, उन्होंने तो वह सब सहन कर लिया, परंतु मैं सहन नहीं करूंगा । यदि अब पुनः कुछ भी करेगा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 206
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy