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________________ मरीचि भरत चक्रवर्ती कथित हकीकत सुनकर हर्ष से त्रिपदी (तीन बार पैरों को) बजाकर नाचने लगा और ऊँचे स्वर में कहने लगा कि “पोतनपुर में मैं पहला वासुदेव होऊँगा, मूकापुरी में चक्रवर्ती बनूंगा और तत्पश्चात् चरम तीर्थंकर होऊंगा। अब मुझे दूसरे किसी अन्य की क्या आवश्यकता है? मैं वासुदेवों में पहला, मेरे पिता चक्रवर्तियों में पहले, और मेरे पितामह तीर्थंकरों में प्रथम। अहो ! मेरा कुल कैसा उत्तम है ? इस प्रकार बार-बार भुजास्फोट करके जातिमद करते हुए मरीचि ने नीच गौत्र कर्म उपार्जन किया । (गा. 56 से 59 ) श्री ऋषभदेव प्रभु के निर्वाण के पश्चात् भी साधुओं के साथ विहार करता हुआ मरीचि भव्य जनों को प्रतिबोध देकर साधुजनों के पास भेज देता । एक वक्त मरीचि व्याधिग्रस्त हुआ, उस समय 'यह संयमी नहीं है' ऐसा सोचकर साधुओं ने उसकी आश्वासना करी नहीं । उससे ग्लानि पाकर मरीचि ने मन में सोचा कि, 'अहो ! ये साधुलोग दाक्षिण्यता बिना के, निर्दय, स्वार्थ में ही उद्यमवंत एवं, लोकव्यवहार से विमुख हैं । धिक्कार है इनको। मैं उनका परिचित हूं, स्नेहाभिभूत और एक ही गुरु से दीक्षित, साथ ही विनीत हूँ। उसका पालन करना तो दूर रहा परंतु मेरे सामने देखते भी नहीं हैं । किन्तु फिर भी मुझे ऐसा खराब नहीं सोचना चाहिए । कारण कि ये साधु लोग तो अपने शरीर की भी परिचर्या करते नहीं हैं, तो मुझ जैसे भ्रष्ट की परिचर्या क्यों करेंगे? इसलिए अब जब मैं इस 'व्याधि से मुक्त हो जाऊंगा, तब कोई मेरी सेवा करे ऐसा एक शिष्य बनाऊँगा, जो इस प्रकार का ही लिंग (वेश) धारण करे ।" इस प्रकार सोचता हुआ वह मरीचि दैवयोग से स्वस्थ हुआ। एक बार उसे कपिल नामक कोई कुलपुत्र मिला। वह धर्म का अर्थी था । अतः उसने उसे अर्हत धर्म कह सुनाया । उस समय कपिल ने उससे पूछा कि 'तुम स्वयं इस धर्म का आचरण क्यों नहीं करते ? मरीचि ने जवाब दिया कि 'मैं उस धर्म को पालने में समर्थ नहीं हूँ ।' तब कपिल ने कहा- “क्या तुम्हारे मार्ग में धर्म नहीं है ? “उसके ऐसे प्रश्न से उसे जिनधर्म में आलसी जानकर, शिष्य की इच्छा वाला मरीचि बोला - कि, "जैनमार्ग में भी धर्म है, और मेरे मार्ग में भी धर्म हैं ।" तत्पश्चात् कपिल उनका शिष्य बन गया। उस समय मिथ्याधर्म के उपदेश से मरिचि ने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण संसार का उपार्जन किया। उस पाप की किसी भी प्रकार की आलोचना किए बिना अंत में अनशन ग्रहण कर मृत्यु प्राप्त कर, मरीचि ब्रह्म त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 5
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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