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________________ जीव हैं, अत्यन्त परवशता के कारण वे यहाँ आने में समर्थ नहीं हैं। इसी प्रकार तुम्हारे जैसे मनुष्य भी वहाँ जाने में समर्थ नहीं है। नारकी जीव तुम जैसे को देखने में प्रत्यक्ष उपलभ्य नहीं। छद्मस्थ जीवों को वे युक्ति गम्य हैं और जो क्षायिक ज्ञानी हैं, उनको वे प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। और फिर इस लोक में कोई क्षायिक ज्ञानी ही नहीं है' ऐसा भी तुम बोलना नहीं, कारण कि उस शंका का व्यभिचार मुझ में ही स्फुट रीति से है (अर्थात् मैं ही क्षायिक ज्ञानी हूँ)।' प्रभु के इस प्रकार के वचनों को सुनकर संशय नष्ट होने से अकंपित ने भी प्रतिबोध को प्राप्त करके ३०० शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ली। गा. 142 से 146) उसके बाद अचल भ्राता आए। प्रभु ने उसे स्फुट रीति से कहा, “अचलभ्राता! तुझे पुण्य और पाप में संदेह है। परंतु तू उसमें जरा भी संदेह करना नहीं। क्योंकि इस लोक में पुण्य पाप का फल प्रत्यक्ष दिखाई देता है। साथ ही यह व्यवहार से भी सिद्ध होता है। दीर्ध आयुष्य, लक्ष्मी, रूप, आरोग्य और सत्कुल में जन्म- ये पुण्य का फल है और इससे विपरीत पाप का फल है। इस प्रकार प्रभु के वचनों से संशय दूर होने पर अचलभ्राता ने तीन सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ली। (गा. 147 से 150) इसके बाद मेतार्य नाम के द्विज प्रभु के पास आए। प्रभु बोले- “तुमको यह संशय है कि 'भवांतर में प्राप्त होने वाला परलोक नहीं है। कारण कि चिदात्मारूप जीव का स्वरूप सर्वभूत का एक संदोह रूप हैं। उन भूतों का अभाव होने पर बिखर जाने पर जीव का भी अभाव होतो फिर परलोक किस प्रकार हो? परंतु यह मिथ्या है। जीव की स्थिति सर्व भूतों से भिन्न है। क्योंकि सर्व भतों के एकत्रित होने पर भी उसमें से कोई चेतना उत्पन्न नहीं होती। इससे चेतना जो जीव का धर्म है, वह भूत से भिन्न है। वह चेतनावाला जीव परलोक में जाता है और वहाँ भी उसे जातिस्मरण आदि से पूर्व भव का स्मरण होता है।" इस प्रकार प्रभु को वचनों से प्रतिबोध प्राप्त कर मेतार्य ने तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ली। (गा. 151 से 155) 122 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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