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________________ डालूं। साथ ही मैं भी मेरा संशय दूर करूं।" इस प्रकार विचार करके वायुभूति प्रभु के पास आए एवं प्रणाम करके बैठे। उसे देखकर प्रभु बोले कि, “हे वायुभूति! तुमको जीव और शरीर के विषय में एक बड़ा भ्रम है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से ग्रहण न होने के कारण जीव शरीर से भिन्न लगता नहीं हैं। इससे जल में बुद्बुदे की तरह जीव शरीर में से ही उत्पन्न होकर शरीर में ही मूर्छा प्राप्त करता है ऐसा तेरा आशय है, परंतु वह मिथ्या है। क्योंकि सर्व प्राणियों को जीव देश से तो प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि उसकी इच्छा आदि गुण प्रत्यक्ष होने से जीव स्वसंविद् है। अर्थात् उसको स्वयं ही उसका अनुभव होता है वह जीव देह और इन्द्रियों से भिन्न है और जब इन्द्रियों का नाश होता है तब भी वह इन्द्रियों से उसका पहले भोगों हुए अर्थ का स्मरण करती है।" इस प्रकार प्रभु की वाणी से अपना संशय नाश होने पर वायुभूति ने संसार से विमुख होकर पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। (गा. 111 से 117) पश्चात् व्यक्त ने स्पष्टता से विचार किया कि “वास्तव में सर्वज्ञ भगवान ही है कि जिन्होंने तीन वेदों की भांति इंद्रभूति आदि को जीत लिया। ये भगवंत मेरे संशय भी जरूर नाश करेंगे और फिर मैं भी इनका शिष्य हो जाऊंगा। ऐसा विचार करके व्यक्त प्रभु के पास आये? उसे आया देख प्रभु बोले- "हे व्यक्त! तेरे चित्त में ऐसा संशय है कि पृथ्वी आदि पंच भूत है ही नहीं, जिसकी यह प्रतीति होती है, वह भ्रम से जलचंद्रवत् हैं। यह सब शून्य ही है, ऐसा तुम्हारा दृढ आशय है। परंतु वह मिथ्या हैं। क्योंकि यदि सर्वशून्यता का पक्ष लें तो फिर भुवन में विख्यात हुए स्वप्न, अस्वप्न, गंधर्वपुर आदि भेद ही नहीं हों।" इस प्रकार सुनकर व्यक्त के संशय का छेद हो गया। इससे उसने व्यक्त वासना बताकर पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ली। ये समाचार सुनकर उपाध्याय सुधर्मा भी अपना संशय निर्मूल करने की इच्छा से लोकालोक का स्वरूप देखने में सूर्य के समान श्री वीर प्रभु के पास आये। उनको आया देख प्रभु ने कहा, "हे सुधर्मा! तुम्हारी बुद्धि में ऐसा विचार वर्त रहा है कि, यह जीव जैसा इस भव में है, वैसा ही परभव में होता है। क्योंकि संसार में कारण के अनुसार ही कार्य होता है। शालि बीज बोने पर उसमें से कोई यवांकुर होते नहीं है। परंतु तेरा यह विचार गलत एवं अघटित है। क्योंकि इस संसार में जो मनुष्य मृदुता व सरलता आदि द्वारा मानुषी आयुष्य का बंध करते हैं, वह पुनः 120 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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